भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी द्वारा ‘जवाहरलाल नेहरू और आधुनिक भारत का निर्माण’ विषय पर जवाहरलाल नेहरू स्मृति व्याख्यान

नई दिल्ली : 13-11-2014

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spमुझे जवाहरलाल नेहरू की 125वीं जन्म-जयंती के अवसर पर आयोजित46वां जवाहरलाल नेहरू स्मृति व्याख्यान देते हुए सम्मान का अनुभव हो रहा है। मैं इस निमंत्रण के लिए जवाहरलाल नेहरू स्मृति फंड की अध्यक्षा,श्रीमती सोनिया गांधी तथा इसके न्यासियों के प्रति आशा व्यक्त करता हूं।

जवाहरलाल नेहरू के अनुकरणीय जीवन तथा आधुनिक भारत के निर्माण में उनके योगदान पर एक संक्षिप्त व्याख्यान में न्याय करना आसान नहीं है। तथापि,आज मैं उनके कुछ दृष्टिकोणों,उनके कार्यों तथा हमारे लिए उनके द्वारा छोड़ी गई विरासत का संक्षेप में उल्लेख करने का प्रयास करूंगा।

देवियो और सज्जनो,

भारत ने इस वर्ष मई में, सन् 1952के बाद आठवीं बार,एक राजनीतिक संरचना से दूसरी राजनीतिक संरचना में शांतिपूर्ण बदलाव देखा।24सितंबर, 2014 को भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन द्वारा प्रक्षेपित मंगल मिशन ने लाल ग्रह की कक्षा में प्रवेश किया। वर्ष2008में भारत और संयुक्त राष्ट्र संघ ने एक असैनिक परमाणु करार पर हस्ताक्षर किए,जिसने भारत को परमाणु प्रौद्योगिकियों में उन्नत राष्ट्र के रूप में मान्यता दी तथा जो भारत की अंतरराष्ट्रीय परमाणु मुख्य धारा में आया।

ऊपर मैंने जिन घटनाक्रमों का उल्लेख किया है, वह भारत के हाल ही के इतिहास के तीन महत्त्वपूर्ण परंतु अलग-अलग आंदोलन हैं। परंतु इन सब में जो एक समान सूत्र शामिल है वह बेहतरीन ढंग से दर्शाते हैं कि किस प्रकार नेहरू की विरासत न केवल कायम है वरन् वह अभी भी आधुनिक भारत को उपलब्धियों की नई ऊंचाइयों की ओर ले जा रही है।

भारत के प्रति नेहरू की सेवाएं असीम हैं। वह हमारे समय के महानतम व्यक्तित्वों में से थे। नेहरू की परिकल्पना इस विषय में एकदम स्पष्ट थी कि आधुनिक भारत को कैसा दिखाई देना चाहिए और उन्होंने ऐसे मजबूत स्तंभों का निर्माण करते हुए अपने सपनों को साकार करना शुरू किया जो नवोदित राष्ट्र को सहायता दे। यदि आज भारत एक जीवंत लोकतंत्र है तो यह केवल नेहरू द्वारा स्थापित बुनियादों के कारण है। यदि भारत खरीद शक्ति क्षमता के आधार पर विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन पाया है तो यह नेहरू द्वारा स्थापित बहुउद्देशीय परियोजनाओं, सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों तथा भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों जैसे उच्च शिक्षा के संस्थानों तथा उनके द्वारा शुरू की गई व्यवस्थित योजना निर्माण प्रक्रिया के बदौलत है। यदि भारत की आज विश्व के प्रौद्योगिकीय रूप से उन्नत देशों में गणना की जाती है तो यह नेहरू द्वारा वैज्ञानिक प्रवृत्ति को बढ़ावा देने तथा उनके द्वारा देश भर में स्थापित राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं की शृंखला के कारण है।

नेहरू ने ही हमें पिछड़ी तथा दूसरों पर निर्भर अर्थव्यवस्था से उबार कर आज की उभरती हुई शक्ति बनाया। उन्होंने ही भारतीयों को यह सुनिश्चित करने के लिए विश्वास तथा योग्यता से सज्जित किया कि हमारा देश विश्व के अग्रणी देशों के बीच अपना उचित और सम्माननीय स्थान हासिल कर सके।

नेहरू और स्वतंत्रता आंदोलन

मित्रो, देवियो और सज्जनो,

जवाहरलाल नेहरू ने हमारे स्वतंत्रता आंदोलन में अनन्य योगदान दिया।

दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के अंत तक कैसर, खलीफा तथा जार के द्वारा शासित बड़े साम्राज्यों का अंत हुआ। 1947 में भारत में डॉ. एनीबेसेंट के नेतृत्व में होम रूल मूवमेंट आरंभ हुआ। जवाहरलाल नेहरू ने,जो अपनी आयु के तीसरे दशक में थे,अपना राजनीतिक जीवन उत्तर प्रदेश में होम रूल लीग के संयुक्त सचिव के रूप में शुरू किया जिसके उनके पिता मोतीलाल नेहरू अध्यक्ष थे। इसके बाद जवाहलाल नेहरू महात्मा गांधी द्वारा आरंभ किए गए असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए और दिसम्बर1921 में वे कारावास में गए।

इसके बाद नेहरू स्वतंत्रता आंदोलन में अग्रणी बने रहे। वह 1929की लाहौर कांग्रेस में केवल 40 वर्ष की आयु में कांग्रेस के अध्यक्ष बने।1928में कलकत्ता के कांग्रेस अधिवेशन में मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता के बाद पिता से पुत्र को जो जिम्मेदारी हस्तांतरित हुई,वह केवल सांकेतिक नहीं थी। इसका सही अर्थ था कांग्रेस में नई पीढ़ी को नेतृत्व का हस्तांतरण। लाहौर अधिवेशन ने‘पूर्ण स्वराज’ को अपना लक्ष्य घोषित किया तथा सविनय अवज्ञा आंदोलन को शुरू करने की अनुमति दी। नेहरू इसके बाद1936के लखनऊ अधिवेशन तथा 1937 के फैज़पुर अधिवेशन के तथा बहुत से अन्य अधिवेशनों के अध्यक्ष बने।

विदेशी शासन से मुक्ति को वास्तविकता में बदलने से बहुत पहले, 1936में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के तौर पर जवाहरलाल नेहरू ने घोषणा की थी कि भारत का अंतिम उद्देश्य‘एक लोकतांत्रिक राष्ट्र’, ‘संपूर्ण लोकतंत्र’ तथा‘एक नवीन सामाजिक और अर्थिक व्यवस्था’ कायम करना है। नेहरू ने भारत के संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए संविधान सभा की मांग को भी लोकप्रिय बनाया तथा1937के प्रांतीय चुनावों में इसे प्रमुख मुद्दा बनाया।

नेहरू स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान 3262 दिन कारावास में रहे जिसमें से वह सबसे अधिक1040दिन तक भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान कारावास में रहे। इसी अवधि के दौरान नेहरू ने अहमदाबाद किले में हिरासत के दौरान1200पृष्ठों की द डिस्कवरी ऑफ इंडिया लिखी। इसी युद्ध के समय मिलने वाले सीमित कागज पर बिना काट छांट,दाग अथवा सुधार करते हुए लिखा गया था। नेहरू ने कारागारों में अपनी विभिन्न अवधियों के दौरान बहुत सा लेखन और चिंतन किया। जैसा कि विदित है1934 में उन्होंने‘विश्व इतिहास की झलक’लिखी जो अपनी पुत्री इन्दिरा को विभिन्न कारावासों से लिखे अपने196 पत्रों पर आधारित है। उन्होंने इन पत्रों में 6000ईसा पूर्व से लेकर इन पत्रों के लिखने तक संपूर्ण मानवता का इतिहास शामिल किया और बिना किसी संदर्भ पुस्तक का सहारा लिए अपने व्यक्तिगत नोटों का सहारा लिया।

स्वतंत्रता के लिए नेहरू का गहन जज्बा अप्रैल, 1942 के उनके शब्दों में देखा जा सकता है, ‘‘हमें बहुत कुछ चाहिए’’, ‘‘स्वतंत्रता के लिए हमारी भूख शांत होने वाली नहीं है। हम इसके लिए भूखे हैं,और हमारे गले प्यास से सूखे हैं।’’

नेहरू और संसदीय लोकतंत्र

भारत में पूर्ण संसदीय लोकतंत्र की स्थापना उपनिवेशवाद की समाप्ति के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण कदम था। नेहरू ने उस प्रक्रिया को तैयार करने में प्रमुख भूमिका निभाई थी जिसके द्वारा अंग्रेजों द्वारा धीरे-धीरे प्रदान की गई सीमित प्रतिनिधित्व वाली सरकार भारतीय जनता के स्वभाव के अनुकूल जीवंत तथा शक्तिशाली संस्था में रूपांतरित हुई। नेहरू के लिए लोकतंत्र का तात्पर्य एक ऐसा उत्तरदायित्वपूर्ण तथा जवाब देने वाली राजनीतिक प्रणाली था,जिसमें विचार-विमर्श और प्रक्रिया के माध्यम से शासन हो। उनके जीवनीकार एस. गोपाल के अनुसार उनमें‘लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति अत्यंत दृढ़ बौद्धिक तथा नैतिक प्रतिबद्धता’थी।

संविधान सभा में ‘उद्देश्य’ संबंधी संकल्प प्रस्तुत करते हुए नेहरू ने कहा था, ‘‘हम यहां जैसी भी शासन प्रणाली स्थापित करें,वह हमारी जनता की प्रकृति के अनुरूप होनी चाहिए तथा उन्हें स्वीकार्य होनी चाहिए।’’

नेहरू ने 1950 की अंतरिम संसद में तथा 1952 से 1964 के बीच पहली, दूसरी तथा तीसरी लोकसभा में सदन के नेता के रूप में व्यक्तिगत उदाहरण प्रस्तुत करते हुए स्वस्थ परंपराओं और उदाहरणों की नींव रखी। वे संसद को बहुत सम्मान देते थे तथा अपने सहयोगियों और नए सांसदों के सामने उदाहरण प्रस्तुत करते हुए लंबी और ऊबाऊ बहसों के दौरान धैर्य के साथ बढ़ते रहते थे। वह संसद में खूब बोलते थे तथा इसका प्रयोग जनता में अपने दृष्टिकोण को पहुंचाने के लिए करते थे। संसद सदस्यों से प्राप्त पत्रों का हर हाल में व्यक्तिगत रूप से तथा तत्काल उत्तर दिया जाता था। नेहरू ने सदन में अध्यक्ष की स्थिति की गरिमा को बनाए रखकर स्थाई मूल्यों की परंपराओं की स्थापना की।

नेहरू ने संसद के सदनों में महत्त्वपूर्ण विषयों पर खुली परिचर्चा को बढ़ावा दिया तथा किसी सूचना को देने से बचने के लिए जनहित का कारण देना वे उचित नहीं मानते थे। नेहरू समझते थे कि एक मजबूत विपक्ष न होने का अर्थ प्रणाली में बड़ी खामी होता है। उन्होंने कहा था :

‘‘मैं नहीं चाहता कि भारत ऐसा देश बने जहां लाखों लोग एक व्यक्ति की‘हां’में हां मिलाएं, मैं एक मजबूत विपक्ष चाहता हूं।’’

पहली तथा तीसरी लोक सभा के संसदीय सत्रों का अधिकांश समय कानून,बजट योजना तथा धन तथा वित्त पर चर्चा पर लगा। इन दिनों वित्तीय लेन-देन का आकार बहुत कम होता था। वास्तव में जवाहरलाल नेहरू ने एक बार मजाक में कहा था कि भारत सरकार का बजट न्यूयार्क म्यूनिसिपल कारपोरेशन से भी कम है। परंतु इसके भारतीय सदस्यों ने कभी भी विभिन्न वित्तीय मुद्दों खासकर पंचवर्षीय योजनाओं पर पूर्ण चर्चा में कोताही नहीं की।

नेहरू महत्त्वपूर्ण विषयों पर विचार के आदान-प्रदान के लिए विपक्ष के नेताओं से खूब मिलते थे तथा अपने मंत्रियों को खोजी प्रश्नों तथा बहसों का स्वागत करने को कहते थे। यद्यपि उस समय कोई औपचारिक विपक्षी दल नहीं था परंतु नेहरू डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी,श्री हिरेन मुखर्जी, श्री एच.वी. कामथ,श्री ए.के. गोपालन तथा श्री अशोक मेहता जैसे विपक्षी नेताओं को सर्वोच्च सम्मान देते थे,जो पहली लोकसभा के सदस्य थे। श्री अटल बिहारी वाजपेयी,जो दूसरी लोक सभा के लिए चुने गए थे तथा डॉ. राममनोहर लोहिया,जो तीसरी लोकसभा के सदस्य बने, का भी नेहरू जी विशेष ध्यान रखते थे।

नेहरू प्रश्नकाल में बहुत रुचि रखते थे तथा इस काल के दौरान प्राय: सदैव उपस्थित रहते थे। नेहरू सदस्यों के अधिकारों तथा विशेषाधिकारों की संरक्षा तथा सुरक्षा के प्रति सदैव सचेत रहते थे। वह इस बात का खास ध्यान रखते थे कि सदन की गरिमा और सम्मान हर हाल में बनाए रखा जाना चाहिए।

महत्त्वपूर्ण मुद्दों को समझने तथा सुविचारित विकल्प का उपयोग करने की गरीबों तथा निरक्षरों की क्षमता पर नेहरू को भारी भरोसा था। उन्होंने देश के बंटवारे तथा उसके परिणामस्वरूप सांप्रदायिक हिंसा को अथवा भारी संख्या में शरणार्थियों के आगमन को चुनावों को स्थगित करने का बहाना नहीं बनाया। इसके बजाय, वह जनता का मत प्राप्त करने के लिए अत्यंत अधीर थे तथा इस बात से परेशान थे कि चुनाव पहले नहीं करवाए जा सके।1951-52के पहले आम चुनावों के लिए चुनाव अभियान के दौरान नेहरू ने खुद25000मील की यात्रा की तथा लगभग 3.50 करोड़ लोगों को,जो कि उस समय की जनसंख्या का दसवां हिस्सा था,संबोधित किया था। उन्होंने जनता को वयस्क मताधिकार के महत्त्व तथा अपने मताधिकार को जिम्मेदारी के साथ प्रयोग करने के दायित्व के प्रति जागरूक किया।

नेहरू और पंथ निरपेक्षता

नेहरू संपूर्णत: पंथनिरपेक्ष थे। जब काफी वर्षों बाद, फ्रांसीसी लेखक आन्द्रे मालरॉक्स ने नेहरू से पूछा कि उनका सबसे कठिन कार्य कौन-सा रहा,तो उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘मैं समझता हूं कि एक न्यायपूर्ण राष्ट्र की न्यायोचित साधनों से स्थापना...’’और थोड़ा रुककर कहा, ‘‘शायद एक धार्मिक देश में पंथनिरपेक्ष राष्ट्र की स्थापना। खासकर जब इसका धर्म किसी प्रेरित पुस्तक पर स्थापित नहीं है।’’

नेहरू के ही सतत् प्रयासों से भारत ने खुद को सभी के लिए,भले ही वे किसी भी धर्म से जुड़े हों,समान अधिकारों वाले पंथनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में स्थापित किया।

नेहरू और महिला सशक्तीकरण

नेहरू की इच्छा थी कि महिलाएं देश में समान नागरिक के रूप में अपनी भूमिका का निर्वाह करें। पश्चिम देशों के विपरीत,भारत में महिलाओं को पुरुषों के साथ ही मताधिकार प्राप्त हुआ,जो काफी पहले1928 में ही कांग्रेस द्वारा उद्घोषित लक्ष्य था। उन्होंने1954में कल्याणी में एक व्याख्यान में कहा था :

‘‘भारत की महिलाओं को देश के निर्माण में समुचित भूमिका निभानी होगी। उनके बिना देश तेजी से प्रगति नहीं कर सकता। देश की प्रगति की स्थिति उसकी महिलाओं से जानी जा सकती है क्योंकि वे ही देश के लोगों की निर्मात्री होती हैं।’’

नेहरू और विदेश नीति

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के वर्षों में, पूरा विश्व पूर्वी और पश्चिमी प्रतिद्वन्द्वी शक्ति गुटों में बंट गया। भारत के लिए और उससे अधिक नेहरू के लिए,जो कि प्रधानमंत्री के रूप में सत्रह वर्षों तक विदेश मंत्रालय का कार्य भी संभाल रहे थे,यह जरूरी था कि वह नवोदित भारतीय राष्ट्र को, कार्य की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए,सैन्य गुटों तथा गठबंधनों से बाहर रखें। नेहरू ने मार्शल प्लान के तहत सहायता स्वीकार नहीं की ताकि विदेश नीति संबंधी मामलों पर भारत की स्वतंत्रता पर आंच न आए।

गुट-निरपेक्षता की नेहरू की नीति का अर्थ समान दूरी अथवा अलगाव नहीं था। इसका अर्थ था निर्णय तथा कार्य में स्वतंत्रता। यह कोई निष्क्रियता की नीति नहीं थी बल्कि एक सक्रिय तथा गतिशील नीति थी जिसके तहत भारत संयुक्त राष्ट्र के लक्ष्यों के प्रति मजबूती से प्रतिबद्ध तथा विश्व में शांति के लिए हर संभव प्रयास करने के लिए तत्पर था। वह नहीं चाहते थे कि भारत उस संघर्ष में शामिल हो जो महाशक्तियों के बीच हो रहा था अथवा कि वह किसी एक समूह का समर्थक बने।

बहुत पहले 1946 में ही, भारत ने दक्षिण अफ्रीका में जातिगत भेदभाव की भर्त्सना करते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा में एक संकल्प प्रस्तुत किया था। भारत ने गाज़ा पट्टी तथा कांगो में शांति रक्षा के लिए सैनिक भेजे। भारत ने आणविक हथियारों तथा उनके समुद्र अथवा वायुमंडल में परीक्षण के विरुद्ध अथक अभियान चलाए। इसने 1963 में आंशिक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। आज,जब शीत युद्ध इतिहास की बात बन चुका है,यह ध्यान रखना होगा कि नेहरू की विदेश नीति‘भारत प्रथम’के स्वस्थ तथा सतत् सिद्धांत पर आधारित थी।

नेहरू और भारत की अर्थव्यवस्था का निर्माण

भारत का उद्गम उपनिवेशवादी शासन से अधिकांशत: कृषि प्रधान देश के रूप में हुआ था। कृषि की स्थिति वस्तुत: आधी सदी तक यथावत् बनी हुई थी तथा आर्थिक प्रगति की औसत दर एक प्रतिशत से कम थी। इस निराशाजनक पृष्ठभूमि में पहले पंद्रह वर्षों में सकल घरेलू उत्पाद में 4 प्रतिशत तथा प्रति व्यक्ति में लगभग 2प्रतिशत (1900से1947 के बीच 0.1 प्रतिशत के मुकाबले) की अनुमानित वृद्धि हुई। यह एक ऐतिहासिक मोड़ था तथा भारत चीन,यू.के. और जापान से आगे तथा अपने समय की अन्य अच्छी अर्थव्यवस्थाओं की बराबरी पर था।

कांग्रेस के अध्यक्ष सुभाषचंद्र बोस ने 1938 में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में राष्ट्रीय योजना निर्माण समिति गठित की थी। जवाहरलाल नेहरू ने इसमें न केवल राजनीतिज्ञ बल्कि वैज्ञानिक,अर्थशास्त्री,व्यापारी तथा उद्योगपति शामिल किए थे। नेहरू योजना निर्माण को केवल योजना आयोग का ही कार्य नहीं बल्कि एक व्यापक राष्ट्रीय प्रयास मानते थे। प्रख्यात अर्थशास्त्री पी.सी. महालानोब्सि ने योजना निर्माण के नेहरूवादी दृष्टिकोण का उल्लेख मध्य मार्ग के रूप में किया है। इसके बाद, मिश्रित अर्थव्यवस्था तथा कल्याणकारी राज्य महत्त्वपूर्ण संकल्पना के रूप में उभरे। योजना आयोग की स्थापना,सार्वजनिक क्षेत्र का उभार,भू-हदबंदी,औद्योगिक एकाधिकार पर विनियम,राजकीय व्यवसाय,ये सभी नेहरू के बहुआयामी प्रयासों का परिणाम थे। नेहरू ने विकास कार्यक्रमों पर राष्ट्रीय तथा अंतर-प्रांतीय सहमति प्राप्त करने के लिए राष्ट्रीय विकास परिषद की संस्था की भी स्थापना की। राष्ट्रीय विकास परिषद का उल्लेख कार्यरत संघवाद के उदाहरण के रूप में किया जाता है।

नेहरू ने संविधान में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों को शामिल करके देश को समाजवादी मार्ग की दिशा में उन्मुख किया।1955में,भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के ऐतिहासिक आवडी अधिवेशन में कांग्रेस ने स्वयं को औपचारिक रूप से समाज के समाजवादी स्वरूप का समूह घोषित किया। यह अधिवेशन,द्वितीय पंचवर्षीय योजना की शुरुआत के समय हुआ था। उसके बाद से संसाधनों का व्यापक उपयोग,तीव्र औद्योगिकीकरण तथा समतापूर्ण वितरण की प्राप्ति राष्ट्र की प्राथमिकताएं बन गए।

बाद के वर्षों में आर्थिक मामलों में सरकार को प्रमुखता प्रदान करने के लिए नेहरू की आलोचना हुई। परंतु इन नीतियों को नेहरू के समय के संदर्भ में देखा जाना चाहिए।190वर्षों तक शोषित समाज में पूंजी के निर्माण का कार्य एक महती कार्य बन गया था जिसे केवल निजी क्षेत्र के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता था। योजना निर्माण से राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के अनुरूप सीमित संसाधनों के आवंटन में मदद मिली। नियंत्रित अर्थव्यवस्था की तुलनात्मक उपयोगिता को उन दिनों व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता था।

नेहरू के प्रयासों ने निजी पहल को हतोत्साहित नहीं किया। निजी क्षेत्र विशेषकर कृषि तथा लघु और मध्यम उद्योगों में,अहम भूमिका निभाता रहा। वास्तव में,स्वतंत्रता के शुरुआती दिनों में,आर्थिक प्रगति लाने में सरकार की प्रमुख भूमिका के विचार का निजी क्षेत्र ने भी समर्थन किया था। इसके अलावा बहुत से निजी क्षेत्र की कंपनियां सार्वजनिक क्षेत्र के वित्तीय संस्थानों से भारी सहयोग लेकर अपने-अपने क्षेत्र की विशाल कंपनियां बन गई।

भाखड़ा नंगल में नेहरू का व्याख्यान उनके एक सबसे उम्दा व्याख्यान के रूप में अभी तक याद किया जाता है :

‘‘मेरे लिए आज ये स्थान ही मंदिर, गुरुद्वारे,गिरिजाघर,मस्जिद हैं जहां इन्सान दूसरे इन्सानों और कुल मिलाकर मानवता के हित के लिए मेहनत करते हैं। वे आज के मंदिर हैं। किसी मंदिर या किसी विशुद्ध पूजा स्थल के बजाय इन महान स्थलों को देखकर मैं,यदि मैं यह शब्द इस्तेमाल करूं,अधिक धार्मिक महसूस करता हूं। ये पूजा स्थल हैं क्योंकि हम यहां किसी चीज को पूजते हैं;हम भारतीयों को तैयार करते हैं;हम लाखों भारत का निर्माण करते हैं और इसलिए यह एक पावन कार्य है।’’

इस्पात और उर्वरक, जल-विद्युत बांधों तथा एल्युमीनियम भट्टियों में निवेश का अर्थव्यवस्था पर चौतरफा प्रभाव पड़ा।1950-65के दौरान कृषि में 2.6 प्रतिशत की औसत वृद्धि दर रही जो भारत में20वीं सदी के समूचे उत्तरार्द्ध से अधिक थी।

एस. गोपाल ने नेहरू की उपलब्धियों को संक्षेप में इस प्रकार कहा है :‘‘उन्होंने राष्ट्र को एकजुट बनाया,लोकतंत्र के लिए इसे प्रशिक्षित किया, आर्थिक विकास के लिए एक मॉडल का निर्माण किया तथा देश को आर्थिक विकास के मार्ग पर अग्रसर किया।’’

नेहरू और विज्ञान

नेहरू मानते थे कि जातिगत पूर्वाग्रह, धर्मान्धता,सामाजिक विषमता आदि को हमारे सामाजिक संबंधों तथा मानसिक स्वभावों में वैज्ञानिक प्रवृत्ति पैदा करके ही समाप्त किया जा सकता है। वैज्ञानिक उपलब्धि के साथ-साथ, वैज्ञानिक मानसिकता तथा चिंतन की वैज्ञानिक प्रवृत्ति का विकास भी उतना ही जरूरी है। विज्ञान मात्र सत्य की खोज नहीं है बल्कि व्यक्ति की बेहतरी के लिए भी है।

सरकार द्वारा एक विज्ञान नीति अपनाई गई तथा देशभर में वैज्ञानिक प्रयोगशालाएं स्थापित की गईं। इंजीनियरी में जनशक्ति के सृजन के लिए भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों की स्थापना की गई। अंतरिक्ष और परमाणु इंजीनियरी जैसी अग्रिम विषय प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत निगरानी में आ गए।

उपसंहार

मित्रो, देवियो और सज्जनो,

आज हम अपनी संसदीय लोकतंत्र की सफलता के प्रति निश्चिंत हैं। परंतु हमें यह याद रखना होगा कि बहुत से नव-स्वतंत्र राष्ट्रों में प्रथम पीढ़ी के राष्ट्रवादी नेताओं ने सारी शक्ति अपने हाथों में रखी तथा बाद में सैन्य शासकों ने उनका स्थान ले लिया। महात्मा गांधी तथा जवाहरलाल नेहरू ने यह सुनिश्चित किया कि शक्ति प्राप्त होते ही यह शक्ति संविधान को अंगीकार करके तथा स्वतंत्र तथा निष्पक्ष चुनावों माध्यम से भारत की जनता को हस्तांतरित कर दी जाए।

स्वतंत्रता के समय से बहुत से लोग यह मानते थे कि भारत शीघ्र ही निरंकुश शासन के अधीन हो जाएगा तथा लोकतंत्र का प्रयोग असफल हो जाएगा। भारत ने राष्ट्र निर्माण के कठिन शुरुआती वर्षों के दौरान नेहरू द्वारा स्थापित सुदृढ़ और स्थिर संसदीय प्रणाली के कारण स्वयं को एकजुट बनाए रखा।

भारत के समक्ष मौजूद चुनौती तथा इसकी सफलता के महत्त्व का ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री,सर एंथनी ईडन ने अच्छी तरह उल्लेख किया है :

‘‘शासन के सभी प्रयोगों में से, जो संसार की शुरुआत के बाद आजमाए गए,मेरा मानना है कि भारतीयों द्वारा संसदीय शासन को अपनाना सबसे रोमांचकारी है। एक विशाल महाद्वीप अपने लाखों-करोड़ों लोगों के बीच मुक्त लोकतंत्र की प्रणाली का प्रयोग करने का प्रयत्न कर रहा है। ऐसा करना बहादुरी है। भारतीय प्रयास हमारे देश की परंपराओं की नकल नहीं है बल्कि इतने बड़े पैमाने पर ऐसा वृहद और बहुगुणित अनुकरण है जिसका हमने कभी सपना भी नहीं देखा था। यदि यह कामयाब हो जाता है तो एशिया पर इसका अत्यधिक अच्छा असर होगा। परिणाम जो भी हो,हमें उनका सम्मान करना चाहिए जिन्होंने यह प्रयास किया।’’

जब एक बार नेहरू से यह पूछा गया कि भारत के लिए उनकी विरासत क्या होगी तो उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘यकीनन स्वयं पर शासन करने में सक्षम चालीस करोड़ लोग।’’

एस. गोपाल के शब्दों में,

‘‘चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों के समक्ष प्राप्त भारतीय लोकतंत्र-व्यस्क मताधिकार,संप्रभु संसद,मुक्त प्रेस,स्वतंत्र न्यायपालिका—नेहरू का एक सबसे स्मरणीय स्मारक है।’’

जवाहरलाल नेहरू का जीवन और परिकल्पना, उनके संघर्ष और उनकी उपलब्धियां किसी महान गाथा से कम नहीं थे। परंतु उनकी गहन लोकतांत्रिक भावना तथा जनता की सम्प्रभुता में विहित राजनीति हमारे लिए उनकी हमारे लिए सबसे बहुमूल्य विरासत है। हाल ही में, 16वीं लोक सभा के चुनावों में हमारे विशाल 83.4 करोड़ मतदाताओं में से 66.40 प्रतिशत ने जिस प्रकार अपने मत का प्रयोग किया,वह उपर्युक्त दिशा में नेहरू के प्रयासों की सर्वोत्तम पुष्टि है।

लोकतंत्र ने भारत में गहरी जड़ें जमा ली हैं तथा यह भीषण कठिनाइयों के सामने कायम रहा,जिसका श्रेय शुरुआती वर्षों में नेहरू के राष्ट्र संचालन को जाता है। स्वतंत्र न्यायपालिका और मुक्त प्रेस से लेकर विधायिका तथा निर्वाचन आयोग तक हमारी हर-एक संस्था पर नेहरू की छाप अंकित है।

भविष्य की ओर देखते हुए, हमें अपनी लोकतांत्रिक संस्थाओं और परिपाटियों की रक्षा और उनको मजबूत बनाने की आवश्यकता पर फिर से ध्यान देना होगा। भले ही वे पूर्णत: कुशल न हों,परंतु वे हमारे देश के लिए21वीं सदी की दिशा में आगे बढ़ने की सर्वोत्तम राह का प्रतिनिधित्व करती हैं।

मित्रो, देवियो और सज्जनो,

मैं भारत के रत्न, जवाहर को नमन करते हुए तथा विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए इस स्मृति व्याख्यान को समाप्त करना चाहूंगा। आज भारत जो है वह नेहरू,उनकी परिकल्पना तथा राष्ट्र के प्रति जीवन भर के उनके समर्पण के कारण है। आइए,हम उनकी विरासत पर गौरवान्वित हों तथा अपने देश को अधिकाधिक ऊंचाइयों की ओर ले जाने के लिए उनके जीवन से प्रेरणा लें।

धन्यवाद, 
जय हिंद!