भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में टैगोर केंद्र के उद्घाटन के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति द्वारा दिया गया प्रथम रवीन्द्रनाथ टैगोर स्मृति व्याख्यान

भारतीय उच्च अनुसंधान संस्थान, शिमला, हिमाचल प्रदेश : 24-05-2013

Speech by the President of India, Shri Pranab Mukherjee at the First Rabindranath Tagore Memorial Lecture on the Occasion of the Inauguration of the Tagore Centreमुझे प्रथम रवीन्द्रनाथ टैगोर स्मृति व्याख्यान देने के लिए शिमला आकर अत्यंत प्रसन्नता हो रही है। लगभग पांच दशक पूर्व, मेरे पूर्ववर्ती डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान का उद्घाटन किया था। उन्होंने इसकी संकल्पना एक ऐसे संस्थान के रूप में की थी, जहां विद्वत्जन, जीवन और चिंतन के व्यापक प्रश्नों पर मनन कर सकें; जहां अध्येतावृत्ति में, विचारों का एक स्वरूप सके और उस पर चर्चा की जा सके, जिससे इस महान राष्ट्र का बौद्धिक तानाबाना समृद्ध हो। डॉ. राधाकृष्णन एक विचारक थे। वह विचारों को महत्त्व देते थे तथा मानव व्यक्तित्व और उसके भविष्य पर विचार-विमर्श के लिए पौर्वात्य और पाश्चात्य दोनों लेखकों और पुस्तकों से विचार ग्रहण करते थे। आज, करीब पचास वर्ष बाद, मुझे इस परिसर में, और भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान के अधीन, टैगोर संस्कृति और सभ्यता अध्ययन केंद्र का उद्घाटन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।

टैगोर की 150वीं जयंती मनाने के लिए गठित राष्ट्रीय कार्यान्वयन समिति के अध्यक्ष के रूप में, मुझे इस केन्द्र के लिए प्रस्तुत प्रस्ताव पर विचार करने का अवसर प्राप्त हुआ था। मैं इसकी संकल्पना पर उत्साहित हुआ था और मैंने इस विचार का अनुमोदन किया था कि भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान ही नए केन्द्र के लिए उपयुक्त संस्थागत स्थल हो सकता है। भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान और गुरुदेव की दूरदृष्टि के प्रति समर्पित, प्रस्तावित टैगोर केंद्र के प्रस्ताव में निहित संकल्पना के बीच एक गहन सादृश्यता थी। नए केंद्र से, उनके लेखन कार्य के अतिरिक्त, उनकी रचनाओं के विशाल खजाने में उनके द्वारा विकसित कला, काव्य, कथा, नाटक और संगीत की कृतियों में नए उपमानों की खोज से मानवीय परिस्थिति की बौद्धिक साधना का अवसर प्राप्त हो सकेगा।

मैं, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान तथा उन सभी लोगों को बधाई देता हूं जिन्होंने उनकी जीवन संबंधी प्रदर्शनी को नवान्वेषी तरीके से संयोजित करने तथा केन्द्र के आंतरिक स्थानों को टैगोर के जीवन से जुड़े चित्रों से सुसज्जित करने में मदद की है। मेरा मानना है कि टैगोर केन्द्र स्वयं को केवल टैगोर के कार्यों का अध्ययन करने तक सीमित नहीं रखेगा, यद्यपि यह एक इसका प्रमुख कार्यकलाप होगा। इसके द्वारा, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में एक ऐसा परिवेश स्थापित करने का प्रयास किया जाएगा जहां कवि की चेतनता, कलाकार की सर्जनात्मकता, मनीषी की संकल्पना, शिक्षाविद् की उत्सुकता, दार्शनिक की जिज्ञासा तथा विश्व नागरिक की उम्मीदों का विश्लेषण होगा। मुझे विश्वास है कि यह केंद्र विश्वभर के अन्य लेखकों, कवियों और कलाकारों के साथ संवाद करते हुए उपर्युक्त कार्य करेगा।

टैगोर एक नवजागरणवादी व्यक्ति थे और ऐसे व्यक्ति इतिहास में विरले ही पाए जाते हैं। अपने व्यक्तित्व में, वे न केवल अपने समकालीन दौर का बल्कि मानव मन की जिज्ञासा, स्थान की सीमाओं से परे और पूरे विश्व के सभी समुदायों के लिए प्रासंगिक प्रश्नों का उल्लेख करते हैं। इसलिए एक ऐसे केन्द्र का होना, जहां भारत के महानतम सपूत विश्व के साथ संवाद स्थापित कर सकें, वास्तव में उनके प्रति सटीक श्रद्धांजलि है। मैं टैगोर के बारे में डॉ. राधाकृष्णन के विचारों को उद्धृत करना चाहूंगा:

‘उनके पास देने के लिए कोई संदेश नहीं, परंतु अनुकरण के लिए एक संकल्पना है। यह एक ऐसा अपेक्षाकृत दुर्लभ और महान कार्य है, जो व्यक्ति को सामान्य जीवन के वायुमंडल से निकालकर ऐसे स्थानों पर पहुंचाता है जहां विविधताओं का अहम् तथा दिखावे से मद्धम पड़े बिना अवलोकन होता है और व्यक्ति का साधारण अस्तित्व एक जीवन, एक लालसा और एक शक्ति बन जाता है।’

मैं, आज अपने व्याख्यान में टैगोर की विशाल रचनाओं में से दो उद्धरणों पर विचार प्रस्तुत करना चाहता हूं जिनके बारे में मैं समझता हूं कि वे वर्तमान भारत के लिए प्रासंगिक हैं।

हमारे सार्वजनिक जीवन में नैतिकता की स्थिति अथवा हमारी सार्वजनिक नैतिकता का स्वरूप और उन्हें नष्ट और क्षीण करने वाली ताकतें कुछ समय से मेरे लिए चिंता का विषय रही हैं। यद्यपि राष्ट्रवाद और इसके पहलुओं पर टैगोर के विचार सर्वविदित हैं और इन पर खूब बहस भी हुई है परंतु आधुनिकता पर टैगोर के विचारों पर, जो मुझे राष्ट्रवाद पर उनकी एक लघु पुस्तक में से मिले, उतना ध्यान नहीं दिया गया है।

‘इतिहास एक ऐसे मुकाम पर आ पहुंचा है जहां नैतिकतावादी व्यक्ति, संपूर्ण व्यक्ति, अनजाने में ही सीमित उद्देश्य के राजनीतिक और वाणिज्यिक व्यक्ति के लिए जगह छोड़ता जा रहा है। यह प्रक्रिया, विज्ञान की आश्चर्यजनक प्रगति के साथ एक ऐसे आत्माविहीन संगठन की छाया तले मानवीय पक्ष को दरकिनार करते हुए विशाल आकार और शक्ति प्राप्त करती जा रही है। हमने अपने जीवन के मूल पर इसकी कठोर पकड़ महसूस की है और मानवता के वास्ते हमें इसके सामने खड़ा होना होगा और सभी को सतर्क करना होगा...।’

‘सीमित उद्देश्य के व्यक्ति’ द्वारा ‘संपूर्ण व्यक्ति’ का स्थान लेने की बात टैगोर के समय की तुलना में आज ज्यादा सत्य प्रतीत होती है और यह उस उपभोक्तावादी समाज के रूप में हम पर गंभीर आक्षेप लगाता है, जो हम आज बन चुके हैं। भारत में मानविकी और समाज विज्ञान के विद्वानों के बीच इस उपभोक्तावादी समाज के उत्प्रेरकों और निहितार्थों पर अधिक चर्चा नहीं हुई है। जलवायु परिवर्तन के लिए, इसके परिणामों तथा प्राकृतिक संसाधनों पर इससे पड़ने वाले दबावों के अलावा, मैं इसके अपने समाज और सांस्कृतिक संस्थाओं पर पड़ने वाले असर से चिंतित हूं। संभवत: हमारे समाज में व्याप्त हिंसा, ‘नैतिकतावादी व्यक्ति’ का स्थान ‘सीमित उद्देश्य के व्यक्ति’ द्वारा लिए जाने का ही परिणाम कही जा सकती है, विशेषकर यह देखते हुए कि वाणिज्यिक व्यक्ति व्यक्तिवादी है, तथा वह जनहित और सर्वहित के नियमों की जिम्मेदारियों से मुक्त अधिकतम आनंदवादी है। यदि टैगोर केंद्र ‘सीमित उद्देश्य’ के बारे में टैगोर का मंतव्य जानने, इसका आकलन करने, इसे पैदा करने वाली प्रक्रिया की पहचान करने तथा उनके साथ किस तरह व्यवहार किया जाए, इस बारे में हमारा मार्गदर्शन करने में मदद कर सके तो यह आधुनिकता के अंतर्गत मानव स्थिति के प्रति हमारी जानकारी में बहुमूल्य योगदान दे सकता है। एक अन्य चिंतनयोग्य वाक्यांश ‘‘एक ऐसे आत्माविहीन संगठन की छाया’’ जो बढ़ता जा रहा है और हमारी नैतिकता का हृस कर रहा है, पर भी विचार जरूरी है।

इसके बाद मैं दूसरे उद्धरण पर आता हूं, जिसमें भारत के प्रति मेरी अपनी आकांक्षा प्रदर्शित हो रही है। हाल के वर्षों में, मैंने भारत की सांस्कृतिक और बौद्धिक विरासत पर चिंतन किया है, इसी तरह इसके विभिन्न साहित्यों का अध्ययन किया तथा स्मारकों की यात्रा की, इसके लोक एवं शास्त्रीय संगीत को सुना और इसके विविध खानपान का आनंद उठाया तब मैंने अनुभव किया कि भारत पर, अपने बहुलवाद तथा इसके विभिन्न साधनों और रूपों पर गौरवान्वित होते हुए, विश्व का बौद्धिक नेतृत्व करने का दायित्व है। भारत इस भूमिका से पीछे नहीं हट सकता है। अब समय आ गया है कि इस बौद्धिक विरासत से विचारों तथा व्यवहार की वह अंतर्दृष्टि प्राप्त की जाए जिसको समझने की विश्व को जरूरत है। भारत की विरासत के अध्ययन को भारतविद्या से आगे निकालकर उसे एक ऐसा बौद्धिक संसाधन बनाना है जिससे दर्शन, सौंदर्य शास्त्र, रंगमंच, भाषा विज्ञान और नैतिक शास्त्र आदि से पूरा विश्व प्रेरणा ले। ज्ञान की दुनिया, यदि हम टैगोर का शानदार वाक्यांश प्रयोग करें, ‘प्रकाशोत्सव से प्रदीप्त होनी चाहिए’। मेरा यह दृढ़ मत है कि भारत इस विश्व को ऐसी चमक से आलोकित कर सकता है जो जादुई हो और मेरा विश्वास है कि भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान और इसका टैगोर केंद्र इस कार्य में अग्रणी बन सकते हैं।

13 मार्च, 1921 को सी.एफ. एंड्रूज को लिखे गुरुदेव के पत्र में कहा गया है।

‘...आज विश्व-इतिहास के इस नाजुक मोड़ पर, क्या भारत अपनी सीमाओं से बाहर निकलकर, एक ऐसा महान आदर्श नहीं प्रस्तुत कर सकता जो विश्व के विभिन्न लोगों के बीच सौहार्द और सहयोग को बढ़ावा दे। कमजोर विश्वास वाले लोग कहेंगे कि भारत को समूचे विश्व के लिए आवाज उठाने से पहले स्वयं को सुदृढ़ और समृद्ध बनाना चाहिए। परंतु मैं इस बात पर विश्वास करने से इन्कार करता हूं। यह विश्वास, कि व्यक्ति की महानता उसकी भौतिक उपलब्धियों में है एक विशाल भ्रमजाल है जो आज के विश्व पर अपनी छाया डाले हुए है—और यह व्यक्ति का अपमान है। भौतिक रूप से कमजोर व्यक्ति के पास ही विश्व को इस भ्रम से बचाने की शक्ति है और भारत अपनी निर्धनता और अवमानना के बावजूद, मानवता की रक्षा कर सकता है ...मैं समझता हूं कि सच्चा भारत एक विचार है, यह केवल भौगोलिक तथ्य नहीं है।’’

हमें टैगोर के इस विश्वास को आत्मसात् करना चाहिए कि ‘धन ज्ञान की पूर्व शर्त नहीं है।’ टैगोर का आदर्श एक नैतिक नेतृत्व है जो शक्ति या समृद्धि से नहीं बल्कि विचारों और सत्य से प्राप्त होता है। मेरा मानना है कि हमारे समय की जरूरत है प्रबुद्ध लोगों का नैतिक मुद्दों से जुड़ना तथा लोगों का मार्गदर्शन करना।

मैं नैतिकता के हृस की भावना पर उद्वेलित हूं, जिसने हमारे सार्वजनिक जीवन को दूषित करना शुरू कर दिया है। आज हमारे सम्मुख टैगोर जैसे आदर्श नहीं हैं जिनसे हम सीख हासिल कर सकें। कहा जाता है कि समाज को आदर्शों की जरूरत इसलिए होती है क्योंकि वे अनिश्चित दौर में मार्गदर्शक का काम करते हैं। हम कठिन दौर से गुजर रहे हैं। ऐसी भौतिक अनिश्चितता के दौर में, हमें टैगोर जैसे महान बुद्धिजीवियों की ओर लौटना चाहिए और यह देखना चाहिए कि वे हमें क्या मार्गदर्शन देते हैं।

टैगोर को कलकत्ता का ऋषि कहा जाता था। उन्हें बंगाल का कविगुरु माना जाता था। हममें से अधिकांश जो कुछ देख पाते, कवि उसे कहीं अधिक देखता है। वे हमारे परिवेश तथा जीवन और समाज के घटनाक्रमों के सच्चे अर्थों को पकड़ पाते हैं। टैगोर को विशेष तौर से भविष्य की ओर देखने का गुण प्राप्त था और उन्होंने अपने संगीत, चित्रकारी, रंगमंच, काव्य और गद्य के माध्यम से अनेक रूपों में हमें इन अंतर्दृष्टियों के दर्शन कराए।

श्री परमथनाथ बिसी ने अपनी पुस्तक ‘विचित्र संलाप’ में, कालिदास और रवीन्द्रनाथ के बीच एक काल्पनिक बातचीत में, कालिदास से रवीन्द्रनाथ के प्रति गहरा आभार व्यक्त कराया है और बताया है कि वह केवल सौंदर्य और आनंद के सर्वोच्च कवि के रूप में विख्यात हैं। केवल रवीन्द्रनाथ ही अपने पाठकों को उनके काव्य की अंर्ततम् आत्मा तक लेकर गए हैं... और उन्हें रवीन्द्रनाथ जैसे प्रतिभावान आलेचक के लिए पन्द्रह सदियों तक प्रतीक्षा करनी पड़ी थी।

मुझे उम्मीद है कि नए टैगोर केन्द्र में बहुत से समर्पित कालिदास मौजूद होंगे। इसे राष्ट्र को समर्पित करते हुए मुझे प्रसन्नता हो रही है।

जय हिंद!