ओ.पी. जिंदल वैश्विक विश्वविद्यालय में ‘भारतीय विश्वविद्यालयों का भविष्य : ज्ञानपूर्ण समाज के लिए उच्च शिक्षण सुधारों पर तुलनात्मक परिदृश्य’ विषय पर सम्मेलन में भारत के राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण
सोनीपत, हरियाणा : 21-03-2013
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मेरे लिए, ओ.पी. जिंदल वैश्विक विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित ‘भारतीय विश्वविद्यालयों का भविष्य : ज्ञानपूर्ण समाज के लिए उच्च शिक्षा सुधारों पर तुलनात्मक प्ररिदृश्य’ विषय पर सम्मेलन के उद्घाटन समारोह में उपस्थित होना वास्तव में गर्व की बात है। मैं इस सम्मेलन के आयोजन के लिए ओ.पी.जिंदल वैश्विक विश्वविद्यालय का धन्यवाद करता हूं। मुझे विश्वास है कि इस सम्मेलन के आयोजन के लिए इससे उपयुक्त समय कोई और नहीं हो सकता था।
आज हमारी शिक्षा प्रणाली में, अनेक कारणों से, महत्त्वपूर्ण सुधार करने की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक है। हमारे विश्वविद्यालयों में शिक्षण, शिक्षकों और अनुसंधान की गुणवत्ता बढ़ाने की अत्यधिक जरूरत है।
किसी राष्ट्र के विकास में शिक्षा की महत्त्वपूर्ण भूमिका पर कोई दो राय नहीं हो सकती। यह एक सबसे शक्तिशाली साधन है जो सामाजिक परिवर्तन का बीजारोपण कर सकता है और देश के आर्थिक भविष्य का कायापलट कर सकता है। बेंजामिन फ्रेंकलिन का कथन है, ‘ज्ञान में निवेश से सबसे अधिक ब्याज प्राप्त होता है।’ मैं, आज आयोजित किए जा रहे इस सम्मेलन के लिए, देश के लिए ऐसे प्रासंगिक और महत्त्वपूर्ण विषय के चुनाव के लिए ओ.पी.जिंदल वैश्विक विश्वविद्यालय को बधाई देता हूं। इस अवसर पर, देश के प्रमुख उद्योगपति, जिनकी मधुर स्मृति में इस विश्वविद्यालय की स्थापना की गई है, श्री ओ.पी. जिंदल को भी मैं श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं।
देवियो और सज्जनो, हमारे लिए शैक्षिक क्षेत्र पर ध्यान देने के कई महत्त्वपूर्ण कारण हैं। मुझे इस बात पर जोर देने की जरूरत नहीं है कि हमारी जनसंख्या युवा है और हमारे देश का जनसांख्यिकीय स्वरूप एक वरदान बन सकता है। यदि हम उनकी क्षमता का उपयोग कर सकें तो यह लाभकारी हो सकता है। परंतु ऐसा करने में और उनकी उत्पादक ऊर्जा को दिशा देने में विफलता के भयानक परिणाम हो सकते हैं।
ये चुनौतियां दुष्कर हो सकती हैं। वर्ष 2020 तक एक भारतीय की औसत आयु 29 वर्ष होगी जो कि अमरीका के 40 वर्ष, जापान के 46 वर्ष तथा यूरोप के 47 वर्ष से बहुत कम है। 2025 में दो-तिहाई से ज्यादा भारतीयों की कामकाजी उम्र होगी।
इन आंकड़ों को देखते हुए अपनी युवा आबादी की शैक्षिक आवश्यकताओं पर ध्यान देना हमारे लिए जरूरी हो गया है। हमें यह मानना होगा कि जनसंख्या का फायदा तभी उठाया जा सकता है जब युवा आबादी को उच्च शिक्षा तथा व्यावसायिक कौशल का प्रशिक्षण प्रदान किया जाए।
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना अवधि के अंत तक, भारत में 659 डिग्री प्रदान करने वाले संस्थान और 33023 कॉलेज थे। यह संख्या वास्तव में प्रभावशाली है परंतु अभी और स्थापित करने होंगे। विशेषकर, देश के ग्रामीण इलाकों में उच्च शिक्षा की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए उनकी जरूरत है।
देश में ऐसे अनेक क्षेत्र है जो किसी कॉलेज या विश्वविद्यालय से काफी दूर हैं। इससे उच्च शिक्षा में प्रवेश संख्या कम रह गई है। भारत में 18-24 वर्ष की बीच की आयु के केवल 7 प्रतिशत विद्यार्थी उच्च शिक्षा में प्रवेश लेते है जबकि जर्मनी में यह 21 प्रतिशत और अमरीका में 34 प्रतिशत है।
शिक्षा तक पहुंच में वृद्धि से न केवल शिक्षा पिरामिड के सबसे निचले पायदान पर शिक्षा का प्रसार करने में मदद मिलेगी बल्कि समावेशिता को भी बढ़ावा मिलेगा। समाज के उपेक्षित वर्गों के लिए शिक्षा को वहनीय बनाकर इसे बढ़ावा दिया जा सकता है। छात्रवृत्ति, शिक्षा ऋण और स्वयं सहायता योजना जैसे, विद्यार्थी सहायक कार्यक्रमों को योग्य विद्यार्थियों के लिए उदारवादी बनाया जाना चाहिए।
देवियो और सज्जनो, हमारे यहां ऐसे विश्वविद्यालयों की कमी है जो वैश्विक मानकों को पूरा करने वाली गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान कर सकें। विश्वविद्यालयों के एक अतंरराष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार, विश्व के सर्वोच्च 200 विश्वविद्यालयों में एक भी भारतीय विश्वविद्यालय शामिल नहीं है, यह चिंता का विषय है। यह स्थिति बिल्कुल स्वीकार्य नहीं है। इसके लिए गंभीर आत्मविश्लेषण की आवश्यकता है। अंतरराष्ट्रीय मानकों से नीचे शैक्षिक स्तर होने से भारत इस प्रतिस्पर्द्धी विश्व में बुरी तरह पिछड़ जाएगा।
राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने 2006 की अपनी रिपोर्ट में देश के उच्च शिक्षा के गिरते स्तर का एक ‘मौन संकट जो गहराता जा रहा है’ के रूप में उल्लेख किया है। हम उपचारात्मक कार्रवाई के लिए अब और प्रतीक्षा नहीं कर सकते। हमारे पास अब समय नहीं है।
हमें अपनी शिक्षा प्रणाली में उत्कृष्टता की संस्कृति को प्रोत्साहित करना होगा। मैं इस विषय में एक सुदृढ़ कदम उठाने का सुझाव दे सकता हूं और वह होगा कि प्रत्येक विश्वविद्यालय में एक विभाग की पहचान की जाए और उसे उत्कृष्टता केन्द्र के रूप में रूपांतरित किया जाए। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग तथा विश्वविद्यालयों को घनिष्ठ सहयोग से मिल-जुलकर कार्य करना होगा।
जिन अकादमिक चुनौतियों का हम सामना कर रहे हैं, उनमें से एक विश्वविद्यालयों में बहुत सारे पदों का खाली पड़ा होना है। केवल केंद्रीय विश्वविद्यालयों में ही शिक्षकों के खाली पड़े पद 38 प्रतिशत के अस्वीकार्य स्तर के आसपास हैं। इस स्थिति को बदलना होगा। विद्यार्थियों को मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए पूरी तरह तत्पर और अनुसंधान को प्रोत्साहित करने वाले योग्य शिक्षकों के बिना हम गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने की उम्मीद नहीं कर सकते।
देवियो और सज्जनो, ऐसे अनेक कदम हैं जिन्हें हमें अपनी शिक्षा प्रणाली में गुणात्मक सुधार लाने तथा इसे विश्व की सर्वोत्तम शिक्षा प्रणाली के समकक्ष बनाने के लिए उठाना होगा। इसके लिए, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और विश्वविद्यालयों तथा सभी भागीदारों को एक साझा नजरिया पैदा करना होगा। उच्च शिक्षा के तीन आधारस्तंभों अर्थात् गुणवत्ता, वहनीयता और सुगम्यता पर बल दिया जाना चाहिए।
निजी क्षेत्र को हमारी शिक्षा प्रणाली में एक बड़ी भूमिका के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। विश्व के कुछ सर्वोच्च विश्वविद्यालय निजी क्षेत्र की पहलों से ही निर्मित हो पाए हैं। भारत में, निजी क्षेत्र ने स्वास्थ्य, परिवहन और वित्तीय सेवाओं जैसे प्रमुख क्षेत्रों में अपनी छाप छोड़ी है। मुझे ऐसा कोई कारण नहीं दिखाई देता कि निजी क्षेत्र, उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी भारतीय अपने प्रयास न दोहरा सकें। परंतु यह सुनिश्चित करने की ओर ध्यान देना होगा कि शिक्षा के स्तर में कोई कमी न आने पाए। इस अवसर पर, एक बार फिर मैं, इस दिशा में अगुआई करने के लिए ओ.पी. जिंदल वैश्विक विश्वविद्यालय को बधाई देता हूं।
सम्बद्ध कॉलेजों में लगभग 81 प्रतिशत विद्यार्थी प्रवेश लेते हैं और ये हमारे उच्च शिक्षा प्रणाली की धुरी हैं परंतु सम्बद्धता प्रदान करने वाले विश्वविद्यालयों को यह सुनिश्चित करने के लिए पूरी मेहनत करनी चाहिए कि ऐसे कॉलेज पर्याप्त पाठ्यचर्या और मूल्यांकन प्रणालियों को अपनाएं।
हमें शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए प्रौद्योगिकी की ताकत का भी प्रयोग करना चाहिए। एक विश्वविद्यालय के कक्षा अध्यापन को, आधुनिक प्रौद्योगिकी का प्रयोग करते हुए, अन्य विश्वविद्यालयों में बहुत से विद्यार्थियों के लाभ के लिए प्रसारित किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, विख्यात प्रोफेसरों के व्याख्यानों को सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के माध्यम से, राष्ट्रीय शिक्षा मिशन द्वारा प्रदान सुविधाओं का प्रयोग करते हुए, मुख्य नगरों और शहरों से दूर स्थित शिक्षा संस्थाओं तक प्रसारित किया जा सकता है।
राष्ट्रीय ज्ञान नेटवर्क ने, जिसका लक्ष्य तेजी से ब्रॉड बैंड नेटवर्क के माध्यम से ज्ञान संवर्धन संस्थानों को जोड़ने का है, काफी प्रगति की है। हम 1500 संस्थानों में से 955 को इस नेटवर्क से जोड़ पाए हैं। सुदूरवर्ती इलाकों के लाभ के लिए शेष एक तिहाई संस्थानों को प्राथमिकता के आधार पर जोड़ा जाना चाहिए।
हमारे विश्वविद्यालयों को ‘प्रेरक शिक्षकों’ की सेवाओं के पूर्ण उपयोग से अपार लाभ होगा। ऐसे 10 से 20 शिक्षकों की पहचान की जानी चाहिए जो पाठ्य पुस्तकों से आगे की जानकारी प्राप्त करने के लिए विद्यार्थियों के मस्तिष्क को जाग्रत कर सकें। जब ऐसे शिक्षक अपने सहकर्मियों और विद्यार्थियों के साथ विचारों का आदान-प्रदान करेंगे तो इससे ज्ञान प्रदान करने और ग्रहण करने की क्षमता में गुणवत्तापूर्ण सुधार होगा।
देवियो और सज्जनो, राष्ट्रों की प्रगति अधिकतर नवान्वेषण में उनकी क्षमता से मापी जाएगी। इस क्षेत्र में भारत का प्रदर्शन अपने प्रमुख प्रतिस्पर्द्धियों के मुकाबले खराब है। यद्यपि भारत की जनसंख्या विश्व की लगभग 17 प्रतिशत है परंतु 2011 में भारत में पेटेंट के लिए विश्व के मात्र 2 प्रतिशत आवेदन किए गए। इस वर्ष, भारत में लगभग 42000 पेटेंट आवेदन किए गए। इसकी तुलना में, चीन और अमरीका में 5-5 लाख से अधिक पेटेंट आवेदन किए गए थे।
विश्वविद्यालयों और अनुसंधान केंद्रों को नवान्वेषण की उर्वर भूमिका बनना चाहिए। उद्योग विकास पार्कों की स्थापना, अध्येतावृत्तियों द्वारा अनुसंधान के विद्यार्थियों की संख्या बढ़ाना, अंतर-विश्वविद्यालय और अंतरा-विश्वविद्यालय सहयोग के जरिए अंतर-विधात्मक अनुसंधान को प्रोत्साहन देना, इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम होंगे।
हमें अपने अकादमिक और अनुसंधान केंद्रों में बौद्धिक संसाधनों को प्रोत्साहित करने और उन्हें कायम रखने के लिए नवान्वेषी ढांचे निर्मित करने चाहिए। विदेशों में, महत्त्वपूर्ण अनुसंधान और अध्यापन पदों पर कार्यरत भारतीय विद्वानों को भारतीय विश्वविद्यालयों में अल्पकालिक नियुक्ति के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इससे ज्ञान के विस्तार और विचारों के आदान-प्रदान में सहायता मिलेगी।
हमारे देश में, जमीनी स्तर पर बहुत से नवान्वेषण होते हैं। परंतु देश उनका लाभ उठा सके इसके लिए, हमें उन्हें वणिज्यिक रूप से विपणन योग्य बनाना होगा। हमारे विश्वविद्यालयों को जमीनी स्तर के नवान्वेषकों को प्रोत्साहित करने के लिए सुसज्जित होना चाहिए और एक मार्गदर्शक की भूमिका निभानी चाहिए।
उच्च शिक्षा क्षेत्र में समयबद्ध कार्रवाई योजना तैयार करने तथा नवान्वेषी बदलाव लाने के लिए, इस वर्ष फरवरी में राष्ट्रपति भवन में केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कुलपतियों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया था। सम्मेलन के दौरान, शिक्षा प्रणाली में सुधार के लिए आवश्यक तात्कालिक, अल्पकालिक और मध्यकालिक उपायों की पहचान की गई। मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा बदलावों पर काम किया जा रहा है। मुझे उम्मीद है कि फरवरी, 2014 में अगले सम्मेलन के आयोजन तक इन उपायों के कार्यान्वयन में महत्त्वपूर्ण प्रगति दिखाई देगी।
देवियो और सज्जनो, पिछले गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र को अपने संबोधन में, मैंने कहा था कि एक समग्र राष्ट्र के रूप में अपनी नैतिक दिशा को फिर से निर्धारित करने का समय आ गया है। हमारे विश्वविद्यालयों और अन्य उच्च शिक्षण संस्थाओं को इस प्रक्रिया में मदद करनी चाहिए। अकादमिक पाठ्यक्रम के अनुपूरक के रूप में नैतिक शिक्षा की शुरुआत करके एक पहल की जा सकती है, ताकि विद्यार्थी धैर्यपूर्वक जीविकोपार्जन की और जीवन की परीक्षा का सामना करने के लिए तैयार हो सकें।
मैं एक बार, फिर सभी भागीदारों में उच्च शिक्षा क्षेत्र की चुनौतियों को अधिक से अधिक समझ विकसित करने की पहल करने तथा इसमें सहायता के लिए मंच उपलब्ध करवाने के लिए ओ.पी. जिंदल वैश्विक विश्वविद्यालय को बधाई देता हूं। मुझे विश्वास है कि इस सम्मेलन में नए विचार और धारणाएं सामने आएंगी।
मैं, इस सम्मेलन के आयोजन की सफलता के लिए आयोजकों को शुभकामनाएं देता हूं।
धन्यवाद,
जय हिंद!