साबरमती आश्रम में अभिलेखागार और अनुसंधान केंद्र के उद्घाटन के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण

अहमदाबाद, गुजरात : 01-12-2015

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s1. मुझे आज साबरमती आश्रम आकर और इस नए अभिलेखागार और अनुसंधान केंद्र का उद्घाटन करके प्रसन्नता हुई है।

2. मैं पूर्व में भी अक्सर हृदय कुंज के इस मंच पर बैठ चुका हूं,जो एक विशेष स्थान है। हृदय कुंज एक दुर्बल-पतले व्यक्ति का घर था जिसने शक्तिशाली साम्राज्य के घुटने टिका दिए। जब भी मैं यहां आता हूं,नई आशा और विश्वास के साथ लौटता हूं।

3. मित्रो,हम ऐसे समय में रह रहे हैं जब दुनिया को गांधीजी की पहले से अधिक आवश्यकता है। आज मैंने जिस अभिलेखागार और अनुसंधान केंद्र का उद्घाटन किया है,वह गांधीजी की विरासत को संजोने और प्रचार-प्रसार का एक ठोस प्रयास है। उनके शब्द और संदेश को फैलाने का हमारा दायित्व पहले से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है।

4. हृदय कुंज हमें प्रेरित करता है और चुनौती देता है। यह बताता है कि व्यक्ति की निष्ठा,संकल्प और आदर्श क्या प्राप्त कर सकते हैं। इसी प्रकार,यह हमें उस पथ का स्मरण भी करवाता है जिस पर गांधीजी के अभाव,उत्पीड़न और अन्याय से मुक्त भारत के स्वप्न को साकार करने के लिए अभी भी चलने की जरूरत है।

5. यह एक आभामय स्थान है जिसके हममें से प्रत्येक को शक्ति प्राप्त करने तथा ऐसे भारत का निर्माण का कार्य शुरू करने के लिए बार-बार दर्शन करने चाहिए जिसकी हमारे संस्थापकों ने संकल्पना की तथा हमारे महान संविधान में प्रावधान किए।

6. गांधीजी हमारे राष्ट्रपिता ही नहीं हैं बल्कि हमारे राष्ट्र के निर्माता भी हैं। उन्होंने हमारे कार्यों को दिशा दिखाने का नैतिक पैमाना प्रदान किया,एक ऐसा पैमाना जिसके द्वारा हमारी परख होती है।

7. गांधीजी ने भारत को एक ऐसे समावेशी राष्ट्र के रूप में देखा जहां हमारी जनसंख्या का प्रत्येक तबका समानतापूर्वक रहता हो और समान अवसर का प्रयोग करता हो। उन्होंने भारत को एक ऐसे देश के रूप में देखा जो अपनी जीवंत विविधता तथा बहुलवाद के प्रति समर्पण पर गर्व और निरंतर उसे मजबूत करता रहेगा। गांधीजी चाहते थे कि हमारे देशवासी निरंतर विचार और कार्य का सदैव विस्तार करते हुए संगठित होकर आगे बढ़ें। और सबसे बढ़कर,वह नहीं चाहते थे कि उनके जीवन और संदेश के कार्य को केवल अनुष्ठान में बदल दिया जाए।

8. राष्ट्रपति ने कहा कि गांधीजी ने हमें नैतिक रूप से नवान्वेषी बनना सिखाया। यदि भारत नैतिक नवान्वेषण की ओर अग्रसर होता है तो हमारी प्रचुर रचनात्मकता के अन्य सभी पहलू गांधी जी द्वारा हमें प्रदत्त प्रत्येक आंख से आंसू पोंछने वाले जंतर को स्वत: पूरा कर देंगे।

9. जब मैंने सुतर आंति पहनकर महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि अर्पित की,मैंने दरिद्र नारायण, भगवान के रूप में निर्धन,के सम्मान में उनके द्वारा रचित विशिष्ट भजन को पढ़ा :

विनम्रता का देवता

रहते हुए छोटी सी बहिष्कृत कुटिया में

करता है मदद हमारी हरदम

उस उर्वर भूमि की खोज में

सींचती हैं जिसे गंगा, ब्रह्मपुत्र और जमुना

देता हमें मिलनसारिता

देता हमें उदार हृदय

देता हमें विनम्रता

देता हमें योग्यता और तत्परता

स्वयं को मानना

भारत की जनता के समान

हे ईश्वर

कौन करता मदद जब व्यक्ति

करता महसूस

सर्वथा दीन-हीन, दे वर हम

उन लोगों से न हों अलग

हम सेवक और मित्र की भांति करें सेवा

आइए बने आत्म त्याग का मूर्त रूप

देवत्व का अवतार

विनम्रता हो जाए साक्षात

कि हम जाने देश को बेहतर और करें प्रेम अधिक।

मैं सोचता हूं कि प्रत्येक भरतीय को इसके अर्थ और महत्त्व पर चिंतन करना चाहिए।

10. गांधीजी की विरासत का असली निचोड़ तथा इसका निरंतर विस्तार उनकी इस सीख में छिपा हुआ है कि हमें सभी कार्यों के दौरान अंतिम व्यक्ति को ध्यान में रखना चाहिए। भारत में अंतिम व्यक्ति प्राय: महिला,दलित या कोई आदिवासी है। हमें निरंतर स्वयं से पूछना चाहिए,क्या हमारे कार्य का उनके लिए कोई अर्थ है?जिस ‘नियति से मिलन’के बारे में पंडित नेहरू ने कहा वह यही दायित्व था।

11. हमें निर्धन से निर्धनतम व्यक्ति को सशक्त बनाना चाहिए। प्रत्येक को सामूहिक कल्याण और सम्पत्ति के ट्रस्टी के तौर पर कार्य करना चाहिए। मनुष्य होने का मूल तत्त्व एक दूसरे के प्रति हमारा विश्वास है। अपने चारों ओर हम पर्यावरण की जो क्षति देखते हैं, वह हमें ट्रस्टीशिप की आवश्यकता की ओर ध्यान दिलाती है।

12. हम प्रतिदिन अपने चारों तरफ अभूतपूर्व हिंसा देखते हैं। इस हिंसा के मूल में अज्ञानता,भय और अविश्वास है। इस निरंतर बढ़ रही हिंसा से मुकाबला करने के नए तरीके खोजते हुए हमें अहिंसा,संवाद और तर्क को नहीं भूलना चाहिए।

13. अहिंसा नकारात्मक शक्ति नहीं है। यह अक्षति भी नहीं है अहिंसा वह नैतिक संभावना है जो अंधेरे को मिटा सकती है और हमें प्रकाश से प्रदीप्त कर सकती है। गुरुदेव ठाकुर और महात्मा गांधी इस प्रकाश के वाहक थे और यह प्रकाश हमारा मार्गदर्शन करता रहे।

14. जो सत्य के पालन करते हैं,जो ईश्वर सत्य नारायण के रूप में सत्य के अनुयायी है,वे दूसरों का जीवन नहीं लेते, बल्कि अपना जीवन बलिदान कर देते हैं। गांधीजी ने अपने होठों पर राम का नाम लेते हुए हत्यारे की गाउेलियां खाकर अहिंसा की सार्थक शिक्षा दी।

15. अपने सार्वजनिक वक्तव्य को सभी प्रकार की शारीरिक और शाब्दिक हिंसा से मुक्त करना चाहिए। एक अहिंसक समाज ही सभी वर्गों के लोगों,विशेषकर हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के उपेक्षित और अभावग्रस्त लोगों की भागीदारी सुनिश्चित कर सकता है।

16. भारत की असली गंदगी हमारी सड़कों पर नहीं बल्कि हमारे मन में है तथा समाज को‘उनका’और ‘हमारा’, ‘पवित्र’और ‘अपवित्र’में बांटने वाले विचारों को छोड़ने की हमारी अनिच्छा में है। हमें सराहनीय और स्वागत योग्य स्वच्छ भारत मिशन को सफल बनाना चाहिए। यद्यपि हमें मन को स्वच्छ बनाने और सभी पहलुओं सहित गांधीजी की संकल्पना को पूरा करने के व्यापक और तीव्र प्रयास की शुरुआत के तौर पर देखना चाहिए।

17. गांधीजी हमें बताते थे और डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर उनसे सहमत थे कि जब तक अस्पृश्यता जारी रहेगी,जब तक मैला ढोने की अमानवीय प्रथा चलती रहेगी,हम वास्तविक स्वच्छ भारत नहीं बना सकते। गांधीजी सभी प्रकार के मानव श्रम की गरिमा पर बल दिया करते थे और उन्होंने एक मेहतर बनने की इच्छा व्यक्त की थी। हमें याद रखना चाहिए कि गांधीजी ने हमारे मन और हमारे गांवों का मेहतर बनने की आकांक्षा की थी।

18. गांधीजी ने लोकतांत्रिक जीवन के कुछ सर्वोत्तम सिद्धांत प्रतिपादित किए जो नागरिक और उनकी सरकार के सम्बन्धों को सदैव नियंत्रित करते रहेंगे। उन्होंने कहा था, ‘‘सर्वोच्च प्रकार की स्वतंत्रता के साथ अत्यधिक अनुशासन और विनम्रता जुड़ी होती है। अनुशासन और विनम्रता से नि:सृत स्वतंत्रता को नकारा नहीं जा सकता,अनियंत्रित लाइसेंस अभद्रता का संकेत है जो स्वयं और पड़ोसियों के लिए एक समान हानिकारक है।’’ (माइंड ऑफ महात्मा गांधी,पृ. 338)

19. गांधीजी ने गुरुदेव ठाकुर को लिखा, ‘‘मैं नहीं चाहता कि मेरे घर के चारों तरफ दीवारें हों और मेरी खिड़कियां बंद हों। मैं चाहता हूं कि सभी जमीनों संस्कृति की हवा मेरे घर में यथासंभव उन्मुक्त विचरण करे। परंतु मैं अपने पांवों को किसी के द्वारा उखड़ने नहीं दूंगा।’’साबरमती आश्रम उनके समय में ऐसा ही स्थान था।

20. अपने विश्वास पर कायम हैं,अपनी आस्था पर दृढ़ हैं और अपनी संस्कृति में रचे बसे हैं,वहीं एक खुले समाज में रहने की आशा कर सकते हैं। यदि हम स्वयं को सीमित कर लेंगे,दूसरे प्रभावों से बचने का प्रयास करेंगे तो इससे जाहिर होगा है कि हम ऐसे घर में रहना चाहते हैं जो ताजी हवा से वंचित हैं। समसामयिक भारत में हृदयकुंज की शिक्षा यह है कि हमें एक ऐसा मुक्त समाज बनाना चाहिए जो समान भाव से विविध विचारों और सोच से जुड़ने के लिए तैयार हो।

21. मित्रो,गांधीजी निर्बाध ज्ञान के समर्थक थे। गांधीजी के जीवन को खंडों और निश्चित रूप में टुकड़ों में नहीं बल्कि समग्र रूप से समझना होगा। पंडित जवाहरलाल नेहरू से गांधी जी के देहांत के कुछ वर्षों के बाद हमें सतर्क किया था, ‘‘एक नई पीढ़ी आई है जिसके लिए वह श्रद्धा योग्य करीब-करीब एक नाम,एक महान नाम है परंतु फिर भी एक नाम है। थोड़े से वर्षों के भीतर,अधिक लोग नहीं बचेंगे जो उनके व्यक्तिगत संपर्क में आए हो और जिनके पास उस तेजस्वी,साहसी और प्रभावशाली व्यक्तित्व से मिले अनुभव हो। यह आश्वासन आगे बढ़ेगा और अनेक आकार लेगा और कभी-कभी इसमें कम सच्चाई होगी।

22. हमारी अमूर्त विरासत हमारी उस विचार प्रणाली,सोच में है जो इस देश के लिए अनूठी है परंतु हमारे अनन्य नहीं है,क्योंकि उनमें न केवल विनम्रता बल्कि जीवन को ग्रहण किया जाता है। गांधीजी द्वारा स्थापित संस्थाओं तथा जिन्हें उनकी विरासत के संरक्षण,परिरक्षण और प्रचार-प्रसार का दायित्व सौंपा गया है,को इस संबंध में अग्रणी बनना चाहिए। गांधीजी पर बहस और शोध में गांधीजी के लेखों के प्रामाणिक पाठक को सार्वजनिक डोमेन में रखकर प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। आश्रम को गांधीजी के जीवन और विचार पर डिजीटल समन्वय के सृजन के लिए देश और विदेश के अन्य अभिलेखाकारों के साथ साझीदारी करनी चाहिए।

23. मैं साबरमती आश्रम की टीम को अपनी शुभकामनाएं देता हूं जिसने इस अभिलेखागार और अनुसंधान केंद्र की संकल्पना और निर्माण किया है। आश्रम जैसे स्मारक को इस राष्ट्र की अपेक्षाओं पर सदैव खरा उतरना चाहिए तथा नई भूमिकाएं ग्रहण करने के लिए तैयार और सक्षम बनना चाहिए। इसे लोगों की कल्पना में सदैव प्रासंगिक बने रहना होगा।

24. मित्रो,जब मैं प्रात: हृदय कुंज में प्रवेश कर रहा था तो गांधीजी का पसंदीदा भजन,गाया जा रहा था। नरसी मेहता के इस अमर भजन में कहा गया है कि सच्चा भक्त वह है जो दयालु है और दूसरों के प्रति समानुभूति से द्रवित हो जाता है। करुणा और समानुभूति की हमारी शक्ति सभ्यता की वास्तविक नींव है। गांधीजी सभ्यता के लिए एक विशेष शब्द‘सुधर’का प्रयोग किया करते थे जिसके बारे में वह कहा करते थे कि यह सुपथ या सही पथ ही नहीं बल्कि यह मानव सभ्यता को एकजुट रखता है। आइए संगठित होने और ऐसे भारत का निर्माण करने की शपथ लें जो इस सुधर को सच्चे अर्थों में व्यक्त करें।

धन्यवाद।