अंतरराष्ट्रीय भारतविद्या सम्मेलन में भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण
राष्ट्रपति भवन, नई दिल्ली : 21-11-2015
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देवियो और सज्जनो :
1. इस प्रात: आपके बीच उपस्थित होना वास्तव में मेरा सौभाग्य है। हम राष्ट्रपति भवन में आयोजित किए जा रहे प्रथम अंतरराष्ट्रीय भारतविद्या सम्मेलन में आप सभी का स्वागत करते हैं। छह महीने पहले की बात है जब मैंने मास्को में भारत की कला और संस्कृति, विज्ञान और दर्शन की अनूठी विरासत पर विख्यात विशेषज्ञों की कार्यकारी बैठक आयोजित करने का वादा किया था। इतिहास के विद्यार्थी और भारत के114 उच्च शिक्षा संस्थानों के कुलाध्यक्ष के रूप में,मैं राष्ट्रपति भवन में ऐसे विद्वत भारतविदों के समूह से मिलने के लिए आतुर रहा हूं। मुझे प्रसन्नता है कि भारतीय सभ्यता पर अगले तीन दिन तक विद्वतापूर्ण विचार-विमर्श होगा। मैं चाहता था कि ऐसे प्रबुद्ध विचार-विमर्श से जागरूक और प्रेरक विचार और परिप्रेक्ष्य उभरेंगे क्योंकि भारत के बारे में किसी भी वार्ता में ऐसा नहीं होता है।
देवियो और सज्जनो,
2. भारतीय धर्म,भाषा और संस्कृति की विलक्षणता ने प्राचीनकाल से ही सुदूर देशों के यात्रियों को आकर्षित किया। प्राचीन भारत में उच्च शिक्षा की विश्व प्रसिद्ध पीठ थीं। ईसा पूर्व छठी शताब्दी से लेकर लगभग अठारह वर्षों तक तक्षशिला,नालंदा, विक्रमशिला,वल्लभी, सोमपुरा और ओदांतपुरी का विश्व शिक्षा प्रणाली पर आधिपत्य था। वे विश्व की सर्वोत्तम प्रतिभाओं और विद्वानों के लिए आकर्षण थे। तक्षशिला चार सभ्यताओं—भारतीय,फारसी, यूनानी और चीनी का संगम बन गया तथा चन्द्रगुप्त मौर्य,चाणक्य, पाणिनी,सेंट टॉमस, फाक्सियन,चरक और डेमोक्रिट्स जैसी विभूतियां यहां आया करती थीं। भारतीय विद्वता जो पहले ही उच्च शिखर पर पहुंच चुकी थी,से जिसका परिचय हुआ, वही सम्मोहित हो गया। मेगस्थनीज से लेकर ह्वेनसांग,फाह्यान, हयेचो और अलबेरुनी,भारतीय अध्ययन के इन विद्वानों ने भारत के अपने ज्ञान का सर्वत्र प्रसार किया।
3. भारतविद्या,जैसा कि आज हमें ज्ञात है, अपेक्षाकृत एक नई शैक्षिक विधा है। विलियम जोंस,हेनरी टॉमस, कोलेबुरके और आगस्ट विलहेम शेलेगल सहित18वीं शताब्दी के अग्रणियों द्वारा निर्मित नींव पर विकसित इस अध्ययन क्षेत्र के पश्चात इसने19वीं शताब्दी में आकार ग्रहण किया।19वीं शताब्दी के जर्मन मूल के भाषाविज्ञानी मैक्सम्यूलर भारतीय अध्ययन के शैक्षिक क्षेत्र के संस्थापकों में से थे। भारतविद्या पर उनकी कृतियां अत्यधिक सम्माननीय हैं। एशियाटिक सोसायटी,द रॉयल एशियाटिक सोसायटी, द अमरीकन ऑरिएंटल सोसायटी तथा जापानीज एसोसिएशन ऑफ इण्डियन एंड बुद्धिस्ट स्टडीज जैसे संगठनों ने भी भारतविद्या के विकास में प्रमुख भूमिका निभाई है।
4. मैं भारतीय इतिहास,कला और संस्कृति, विज्ञान और दर्शन के सभी भारतविदों और विद्वानों के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं। उन्होंने सदियों से सुदूर देशों में भारतीय ज्ञान प्रणाली की जानकारी,प्रचार-प्रसार और प्रोत्साहन में योगदान दिया है।
देवियो और सज्जनो,
5. मुझे आज जर्मनी संघीय गणराज्य के विशिष्ट वरिष्ठ प्रोफेसर हेनरिच फ्रीहर वोन स्टीटेनक्रोन को प्रथम विशिष्ट भारतविद् पुरस्कार प्रदान करके प्रसन्नता हुई है। भारतविद्या में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए उनका चयन किया गया है। उन्होंने एक शोधकर्ता, अध्यापक,शिक्षाविद् और पुरालेखक के तौर पर भारतीय पंथों के इतिहास के विभिन्न पहलुओं और ओडिशा की प्रादेशिक परंपराओं के अध्ययन में पूरा जीवन लगा दिया है। उनके शोध के परिणामस्वरूप,उन्होंने उन्नीस से अधिक पुस्तकें और लगभग एक सौ वैज्ञानिक शोध पत्र लिखे हैं। उनके कार्य ने भारतविद्या अध्ययनों की गुणवत्ता और महत्त्व में वृद्धि की है तथा इससे इस दिशा में भावी प्रयासों को प्रोत्साहन मिलेगा। मैं उनके चयन के लिए प्रख्यात निर्णायक मंडल का धन्यवाद करता हूं और इस सम्मान के लिए विद्वान प्रोफेसर को बधाई देता हूं।
6. मैं इस पुरस्कार को आरंभ करने तथा विद्वानों के इस विशिष्ट समूह को एक स्थान पर आमंत्रित करने के लिए विदेश मंत्रालय और भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद की सराहना करता हूं। इस अवसर पर,मैं भारतीय ज्ञान प्रणाली की खोज और प्रचार-प्रसार में इन सभी प्रख्यात इतिहासकारों और शिक्षाविदों के अमूल्य योगदान की भी प्रशंसा करता हूं। मुझे विश्वास है कि इस सम्मेलन के लिए चुने गए विषयों से रोचक संवाद तथा ज्ञान के प्रचार-प्रसार को प्रोत्साहन मिलेगा। इन संकेंद्रित सत्रों के निष्कर्ष, निस्संदेह,भारतविद्या को सर्वोत्तम तरीके से ऊर्जावान बनाएंगे। मैं राष्ट्रपति की सचिव,श्रीमती ओमिता पॉल का, इतनी प्रभावशीलता के साथ इस विचार को वास्तविकता में बदलने के लिए धन्यवाद करता हूं।
देवियो और सज्जनो,
7. जैसा कि आप सहमत होंगे,भारतविद्या का अभिप्राय भारत का अध्ययन ही नहीं है। इसके स्थान पर भारतविद्या मानव ज्ञान प्रयास का एक प्रमुख घटक है;यह मानव सभ्यता के विकास का ज्ञान तथा मानव जीवन की जटिलताओं की पहचान और उन्हें कम करने का विज्ञान है। पुरातन भारतीयों ने मानव चेतना का कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं छोड़ा है,चाहे वह धार्मिक और दर्शन का गहन शोध हो अथवा खाद्य के चिकित्सीय रहस्यों को उजागर करना हो। उन्होंने आयुर्विज्ञान,राज्य शासन, विधि,समाज विज्ञान, धातुकर्म,भाषा, व्याकरण और सौंदर्यशास्त्र पर अद्भुत गंभीर ग्रंथों का पूरे विस्तार से अध्ययन किया और सारगर्भित ढंग से लिखा। कौटिल्य अर्थशास्त्र राज्य शासन पर एक विस्तृत आलेख है। मनुस्मृति एक विधिक ग्रंथ है जिसका व्यापक रूप से अध्ययन किया जाता है। स्वास्थ्यवर्धक आहार के माध्यम से देह पोषण पर समान रूप से ध्यान दिया गया तथा पाक शास्त्र एक अत्यंत विकसित विषय बन गया।
8. इस वर्ष 21जून अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाया गया। इसके द्वारा योग के प्राचीन विज्ञान का रहस्योद्घाटन किया गया है। इसे आम जन तक ले जाया गया है। वह जान गया है कि योगाभ्यास को अपने दैनिक जीवन का अंग कैसे बनाया जाए। योग की वैश्विक लोकप्रियता से उन लोगों की जीवनशैली को सुधारने में मदद करेगी जिन्होंने इसे अपनाया है और अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की सक्रिय रक्षा की है। मैं विश्व की युवा पीढ़ी को आयुर्वेद और अन्य प्राचीन भारतीय आरोग्य प्रणालियों का अध्ययन,अभ्यास और इससे लाभान्वित होने के लिए प्रोत्साहित करना चाहता हूं। मैं इस विज्ञान का रोगों के समग्र उपचार में समेकन बढ़ाने की उम्मीद करता हूं। मैं भारत और उसके विदेशी साझीदारों के बीच भारतविद्या में और शैक्षिक सहयोग की उम्मीद करता हूं। इससे हम इन मित्र देशों के साथ न केवल भारत के द्विपक्षीय संवाद के नए आयाम जोड़ेंगे,बल्कि सहयोग और परस्पर सद्भाव का एक और स्तर भी सृजित करेंगे।
देवियो और सज्जनो,
9. प्राचीन भारत के समाज में नूतन विचारों को अत्यधिक महत्त्व दिया जाता था। विद्वान से ज्ञान अथवा ऋषि के रूप में मान्यता प्राप्त करने के लिए स्वतंत्र विचारों की अपेक्षा की जाती थी। मानवता से संबंधित सभी विषयों पर बौद्धिक संवाद इतना सघन था कि टैगोर ने अपनी गीतांजलि में भारत की तुलना ‘दिव्य महासागर’से की थी और कहा था, ‘‘किसी को ज्ञात नहीं है कि किसके निमंत्रण पर इतनी सारी आत्माओं का आह्वान किया गया है जो नदी की तेज धारा की तरह यहां एकत्र हो गईं और स्वयं को दिव्य महासागर में विलीन कर दिया है।’’
10. पूर्व भारतविद भारतीय संस्कृति के अध्ययन के लिए संस्कृत पर निर्भर रहा करते थे। संस्कृत विश्व के दो प्रमुख धर्मों और आठ दार्शनिक विचारधाराओं के अध्ययन का माध्यम रही है। इसी प्रकार,वैदिक गणित संस्कृत पर आधारित है। यह अपने आप में साहित्य,महाकाव्यों, सौंदर्यशास्त्र,नाट्य तथा भारतीय सभ्यता के विशाल भंडार की कुंजी है। यह मानव विकास,विश्व शांति और वैश्विक समृद्धि पर महानतम कृतियों की भाषा है। वैदिक ग्रंथों में संभवत: सबसे पहले‘वसुधैव कुटुंबकम्’की सार्वभौमिक अवधारणा का घोष किया गया जिसका अर्थ है ‘विश्व एक परिवार है’। मार्क ट्वेन के शब्दों में, ‘‘भारत मानव जाति की पल्लवन भूमि,मानववाद का जन्मस्थान, इतिहास की जननी,पुराण की महाजननी तथा परंपरा की उससे बड़ी महाजननी है...।’’मेरे विचार से भारतविद्या की लोकप्रियता,मानव चिंतन की सभी संभावित जिज्ञासाओं का समाधान करने के इसके व्यापक दायरे और क्षमता में निहित है।
11. यह मानना होगा कि भारत की प्राचीन परंपराओं ने कायम रहने और आगे बढ़ने के लिए आधुनिकता के श्रेष्ठ तत्त्वों को चुनकर ग्रहण करने में कोई संकोच नहीं किया। इसका इतिहास इसके लोगों के विचारों,कार्यों, रीति-रिवाजों और धार्मिक कृत्यों से परिपूर्ण और सजीव बना रहा। आधुनिकता की सभी अभिव्यक्तियों का यहां समान रूप से स्वागत किया गया।
देवियो और सज्जनो,
12. आज हम अपूर्व घटनाओं का सामना कर रहे हैं जबकि विश्व मानवीय असहिष्णुता और घृणा की बुरी भावनाओं से निपटने के लिए संघर्षरत हैं। ऐसी स्थिति में,उच्च मूल्यों, लिखित और अलिखित संस्कारों,कर्तव्यों और जीवन पद्धति जो भारत की आत्मा है,का स्वयं को स्मरण करवाने से बेहतर और कोई उपाय नहीं है। आधुनिक भारत की जटिल विविधता को बांधे रखने वाले सभ्यतागत मूल्यों को पुन: सुदृढ़ करने और उन्हें हमारी जनता और विश्व के बीच प्रोत्साहित करने का यही समय है।
13. जैसा कि स्वामी विवेकानंद ने सारगर्भित ढंग से वर्णन किया था, ‘‘यदि इस पृथ्वी पर ऐसी कोई भूमि है जो श्रेष्ठ पुण्यभूमि होने का दावा करे,जहां इस पृथ्वी की सारी आत्माओं का आगमन कर्म के लिए होता हो,ऐसी भूमि जहां प्रत्येक आत्मा को अपने परम धाम पर पहुंचने के लिए ईश्वरीय पथ पर गमन करना हो,ऐसी भूमि जहां मानव ने विनम्रता, उदारता, शुचिता,शांति और सबसे बढ़कर अंतर्विश्लेषण और आध्यात्मिकता की परम सीमा प्राप्त कर ली हो,वह भूमि भारत है... यहीं पर भारतीय,मुस्लिमों और ईसाइयों के लिए धर्मस्थल बनाते हैं,कहीं पर ऐसा नहीं किया जाता...। इसलिए एक महान सीख,जिसकी विश्व को सबसे अधिक आवश्यकता है,जिसे विश्व को भारत से अभी सीखना है,वह न केवल सहिष्णुता है बल्कि संवेदना का विचार भी है।’’
देवियो और सज्जनो,
14. मेरा उद्देश्य इस सभा को प्राचीनकाल पर हद से ज्यादा एकाग्र करवाना या हमें भारत के भव्य अतीत की पुरानी स्मृतियों की याद दिलाना नहीं है। इसकी बजाय,मैं उम्मीद करता हूं कि आपकी विद्वतापूर्ण वार्ता वर्तमान भारत को गौरवपूर्ण इतिहास में दृढ़ता से स्थापित करते हुए,उसकी भावी महानता के तर्कसंगत पथ को प्रकाशित करेगी। मुझे विश्वास है कि आगामी तीन दिन के दौरान विचार-विमर्श में उस तरीके पर बल दिया जाएगा जिसके द्वारा बहुलवाद और बहुसंस्कृतिवाद भारतीय मानस के मूल में स्थित है। वे निश्चित रूप से भारतविद्या के क्षेत्र में हमारे ज्ञान के वर्तमान भंडार में महत्त्वपूर्ण योगदान देंगे।
15. मैं प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत सरकार और विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज की भारत और विदेश दोनों में भारतविद्या संबंधी अध्ययन के प्रोत्साहन और उन्नयन के लिए सराहना करता हूं।
16. मुझे विश्वास है कि ऐसी पहल का बल रचनात्मक होगा तथा यह सतत् आधार पर जारी रहेगी।
17. इन्हीं शब्दों के साथ,मैं सम्मेलन की अत्यंत सफलता की कामना करता हूं।
धन्यवाद ,
जय हिंद!