इस्तांबुल विश्वविद्यालय द्वारा मानद उपाधि प्रदान किए जाने के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी का स्वीकृति अभिभाषण

इस्तांबुल, तुर्की : 05-10-2013

Download : Speeches (247.3 किलोबाइट)

Acceptance Speech by the President of India, Shri Pranab Mukherjee at the Ceremony Conferring Honoris Causa by the University of Istanbulइस्तांबुल विश्वविद्यालय के रेक्टर प्रोफेसर डॉ. युनुस सोयलेट,

राजनीति विज्ञान संकाय के डीन प्रोफेसर डॉ. एमरा सेंगिज,

विशिष्ट अतिथिगण

देवियो और सज्जनो,

मैं, आरंभ में भारतवासियों, भारत सरकार तथा अपनी ओर से तुर्की की मैत्रीपूर्ण जनता को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं देता हूं।

मैं आज राजनीति विज्ञान में डॉक्टरेट की मानद उपाधि प्रदान करने के लिए इस्तांबुल विश्वविद्यालय की सराहना करता हूं। मैं इस्तांबुल विश्वविद्यालय से, जो स्वयं इस शहर के समान ऐतिहासिक है और दो पृथक भू-महाद्वीपों और सभ्यताओं को जोड़ने वाला सेतु रहा है, यह सम्मान प्राप्त करके गर्व का अनुभव कर रहा हूं। मुझे वास्तव में यहां आकर अत्यंत गौरव और सौभाग्य का अनुभव हो रहा है।

आपके इस सुंदर शहर में 200 भारतवंशियों का सुदृढ़ समुदाय है जो अपने आप में एक जीवंत समुदाय है। उनकी संस्कृति, अनुभव और विशेषज्ञता हमारे लोगों के बीच मैत्री, सद्भावना और समझ-बूझ भरे संबंधों को मजबूत बनाने में मदद करती है। मैं, यहां हमारे समुदाय की ओर मैत्री का हाथ बढ़ाने वाली सरकार, विश्वविद्यालयों, नियोजकों और तुर्की की जनता को धन्यवाद देता हूं। हमारे लोगों के बीच यह संपर्क हमारे दोनों देशों के बीच घनिष्ठ द्विपक्षीय संबंधों के निर्माण में एक महान संबल है।

राजनीति विज्ञान के डीन प्रो. डॉ. एमरा सेंगिज द्वारा पढ़े गए वक्तव्य में कहा गया है कि मुझे प्रदान की गई डॉक्टर ऑफ लेटर्स की मानद उपाधि राजनीतिक जीवन के बहुत से दशकों तथा भारत की सरकार और लोकतंत्र में योगदान में मेरी उपलब्धियों के लिए प्रदान की गई है। जहां मैं इस सम्मान से अभिभूत हूं, मेरे विचार से यह सम्मान भारतवर्ष और इसके लोगों के कारण है।

भारत एक विकासशील अर्थव्यवस्था है। इसने प्रत्येक व्यक्ति को विकास का अवसर प्रदान करने के लिए शासन का लोकतांत्रिक मॉडल अपनाया है। भारत का लोकतंत्र विश्व भर की स्वतंत्रता की शक्तियों के लिए एक प्रेरणा है। जब हमने 1947 में अपनी लोकतंत्र की यात्रा शुरू की थी तो हम एक नया राष्ट्र थे, जिसके समक्ष काफी चुनौतियां मौजूद थीं। हमने इन कष्टों और चुनौतियों पर विजय प्राप्त की और आज हम एक जीवंत लोकतंत्र के रूप में मजबूती से विकसित हो गए हैं।

हमारी लोकतांत्रिक आधारशिला संसद, कार्यपालिका और न्यायपालिका के तीन स्तंभों पर निर्मित है। संसद एक पावन संस्था है जो लोगों की आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करती है। हमारी संसद के सदस्य लोगों के चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं जो उनकी आशाओं और आकांक्षाओं की नुमांइंदगी करते हैं और उनकी शिकायतों को स्वर प्रदान करते हैं। लोगों के प्रति, कार्यपालिका की अपने कार्यों के लिए जवाबदेही संसद के माध्यम से होती है।

अपने-अपने राजनीतिक ढांचों के मामले में हमारी तुर्की के साथ बहुत समानता है। हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं की सफलता हमारे समय की चुनौतियों तथा हमारी जनता की उम्मीदों आशाओं और आकांक्षाओं को फलीभूत करने में निहित है। उन्हें बदलाव लाना होगा और हमारे दोनों देशों द्वारा अपेक्षित प्रगति प्राप्त करनी होगी। सुशासन, इसकी उपलब्धि में योगदान देने वाला एक प्रमुख कारक हो सकता है।

देशों द्वारा इस लक्ष्य को पहले से कहीं अधिक महत्व दिया जा रहा है क्योंकि इसका सामाजिक कल्याण और जनहित के साथ अभिन्न संबंध है। सुशासन के अभाव की समाज की अधिकांश गंभीर खामियों के मुख्य कारण के रूप में पहचान की गई है। यह विडंबना है कि इससे नागरिकों की सुरक्षा और उनके कल्याण एवं सामूहिक हित के लिए स्थापित उनके सामाजिक और आर्थिक अधिकारों का हनन होता है।

सुशासन कुछ आधारभूत पूर्व आवश्यकताओं की मौजूदगी पर निर्भर करता है। इसके केन्द्र में कानून के शासन का कड़ाई से अनुपालन तथा न्याय प्रदान करना है। इन सिद्धांतों से ही सहभागितापूर्ण निर्णयकारी ढांचा, पारदर्शिता, सक्रियता, जवाबदेही, समानता तथा समावेशिता आएगी। इससे विशेषकर भ्रष्टाचार मुक्त समाज की मौजूदगी और खासतौर से, उपेक्षित वर्गों को निर्णय करने में एक पर्याप्त भूमिका के लिए पर्याप्त अवसरों की मौजूदगी सुनिश्चित होगी। संक्षेप में, सुशासन का अर्थ है, एक ऐसे व्यापक ढांचे की मौजूदगी जिसका एकमात्र लक्ष्य लोगों की भलाई है।

स्थिरता, विकास और प्रगति ये सब तभी हासिल किए जा सकते हैं जब हम सही प्राथमिकता तय करें और उन्हें प्राप्त करने के लिए मजबूत नीतिगत उपाय करें। मेरा मानना है कि सुशासन को अनिवार्य माना जाना चाहिए और कानून का शासन और न्याय सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांतों सहित, इसका सबसे प्रमुख दर्शन होना चाहिए।

तीन दिन पहले 2 अक्तूबर को हमने स्वतंत्रता संग्राम को दिशा देने वाले भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 144वीं जयंती मनाई। उनके प्रति आपके महान संस्थापक मुस्तफा कमाल अतातुर्क का विशेष स्नेह था। हम जानते हैं कि दोनों देशों के राजनीतिक नेताओं का महात्मा गांधी के प्रति दृढ़ परस्पर श्रद्धा, सहानुभूति तथा सम्मान का भाव है। सहिष्णुता और आत्मसंयम के उनके दर्शन का, भारत द्वारा लोकतांत्रिक शासन के तहत विगत पैंसठ वर्षों की अपनी यात्रा पर बहुत प्रभाव पड़ा। उनके दर्शन के रूप में प्रतिपादित मूल्य प्रणाली में ईमानदार प्रयास, उद्देश्य के प्रति ईमानदारी तथा जनहित के लिए त्याग शामिल था।

जब मैं एक ऐसे व्यक्ति के रूप में विश्व की ओर देखता हूं जो लगभग आठ दशक से इस दुनिया में रह रहा है और एक गांधीवादी है तो मैं स्वयं से पूछता हूं कि क्या देशभक्ति, सहृदयता, सहिष्णुता, आत्मसंयम, ईमानदारी, अनुशासन और महिलाओं के प्रति सम्मान उतना है जितना होना चाहिए। मैंने अपने निजी और सार्वजनिक जीवन के दौरान इन आदर्शों में योगदान के लिए प्रयास किया है जिनके बारे में मेरा मानना है कि ये मानवता के मूल तत्व हैं।

देवियो और सज्जनो,

चुनौतियों और यदा-कदा पिछड़ने के बावजूद भारत को अब उसकी समस्याओं से नहीं बल्कि अपनी उपलब्धियों और अवसरों से जाना जाता है। हम एक ट्रिलियन डॉलर वाली अर्थव्यवस्था बन चुके हैं जो दक्षिण पूर्व एशिया में सबसे बड़ी है। हमारे यहां इस क्षेत्र का विशालतम मध्यमवर्ग है। पिछले दशक के दौरान भारत दुनिया के एक सबसे तीव्र गति से विकास कर रहे राष्ट्र के रूप में उभरा है। इस अवधि के दौरान, हमारी अर्थव्यवस्था ने वार्षिक रूप से 7.9 प्रतिशत की औसत दर से विकास किया। हम खाद्यान उत्पादन में आत्मनिर्भर हैं तथा चावल के सबसे बड़े और गेहूं के दूसरे सबसे बड़े निर्यातक हैं। तथापि समतामूलक आर्थिक विकास अभी भी एक चुनौती बना हुआ है। इसी तरह निर्धनता को भी पूरी तरह समाप्त किया जाना है हालांकि निर्धनता की दर में कमी का रुझान स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।

रोजगार के अवसर तेजी से पैदा करना सुशासन का एक आवश्यक पहलू है। लगभग 350 मिलियन मध्यमवर्गीय भारतीय नागरिकों ने पिछले लगभग दो दशकों के दौरान भारत को दुनिया के नक्शे पर स्थापित कर दिया है। हमारी स्वतंत्रता की 66वीं वर्षगांठ के अवसर पर, 15 अगस्त की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में मैंने नागरिकों को रोजगार, शिक्षा, खाद्य और सूचना के अधिकार के संबंध में कानूनी गारंटी द्वारा समर्थित हक प्रदान करने की आवश्यकता का उल्लेख किया था। हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि इन हकदारियों से लोगों का वास्तविक सशक्तीकरण हो। इन कानूनों को कारगर बनाने के लिए सुदृढ़ सुपुर्दगी तंत्रों को विकसित करके टिकाऊ बनाना आवश्यक होगा।

तेजी से विकास की हमारी गति को कायम रखना होगा। हमें निरंतर सफलता अर्जित करनी होगी। इन परिवर्तनकारी दशकों के दौरान, हमारी उपलब्धियों के बावजूद, अभी बहुत कार्य शेष है। वास्तव में भारत में बदलाव को बनाए रखने के लिए, देश की जनता की कड़ी मेहनत एवं लगन और विशेषकर इसके नेताओं द्वारा संचालित सुशासन की आवश्यकता होगी। हमें विधि केशासन और सुशासन की परिपाटियों को भी मजबूत बनाना होगा। हमें अपनी विविध जातियों और धार्मिक समूहों, जिनका एक पंथनिरपेक्ष शासन व्यवस्था में राष्ट्रनिर्माण के लिए सर्वोच्च महत्व है, के बीच सौहार्दपूर्ण संबंधों को सुनिश्चित करना होगा।

मित्रो,

हमने नुकसान उठाकर यह जाना है कि अगर हमारी सीमाओं पर शांति नहीं होगी तो विकास और सद्भावना हासिल नहीं की जा सकती। भारत और तुर्की अत्यंत विषम भौगोलिक परिस्थितियों में रहते हैं और दोनों अपनी आंतरिक और बाहरी सुरक्षा के प्रति गंभीर चुनौतियों से वाकिफ हैं। तथापि मुझे विश्वास है कि आप इस बात से सहमत होंगे शांति के प्रति भारत की दृढ़ प्रतिबद्धता है। हमने अपने समाज में संतुलन, बहुलवाद और सहिष्णुता कायम रखा है।

मुझे पक्का विश्वास है कि इन सबके साथ, स्वतंत्रता के एक सौ वर्ष के बाद, 2047 में, लोकतांत्रिक रूप से परिपक्व, स्थिर और शांतिपूर्ण राष्ट्र के रूप में भारत की मेरी परिकल्पना पूरी तरह कार्यान्वित हो जाएगी तथा स्वतंत्रता और सभी के लिए अवसर एक वास्तविकता बन जाएंगे। यह समाज के सभी स्तरों पर एक आर्थिक रूप से समृद्ध भारत होगा। औपनिवेशिक शासन की दो शताब्दियों के बाद 1947 में अस्तित्व में आने के पश्चात् बहुत से लोगों को यह दूरदृष्टि दूर की कौड़ी लगी होगी परंतु हमारे राष्ट्रीय नेताओं की परिकल्पना के अनुसार, मुझे आज यह कहते हुए गर्व हो रहा है कि ऐसा भविष्य पूरी तरह हमारी पहुंच के भीतर हैं।

मुझे खुशी है कि ‘भारत’ का विचार समय के उतार-चढ़ाव के समक्ष अडिग रहा है इसने एक ऐसे पंथनिरपेक्ष, समाजवादी, लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में स्वयं को प्रस्तुत किया है जो हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की संकल्पना के अनुसार, गुटनिरपेक्ष, अहिंसक और शांतिप्रिय है। विश्व भर में तुर्की जैसे हमारे मित्रों ने इस विचार को वास्तविकता में बदलने में योगदान दिया है।

देवियो और सज्जनो,

अंत में, मुझे नोबेल विजेता भारतीय कवि और दार्शनिक रवीन्द्रनाथ ठाकुर की याद आती है, जिनकी रचना गीतांजलि में ये पक्तियां हैं, जो इस विश्व में सही स्थान प्राप्त करने के लिए तत्पर एक सफल और पूर्ण विकसित भारत की मेरी आशाओं और स्वप्नों का सार है: जहां मन निर्भय है और मस्तक गर्वोन्नत है; जहां ज्ञान मुक्त है; जहां विश्व संकीर्ण घरेलू दीवारों से टुकड़ों में खंडित नहीं है; जहां शब्द सच्चाई की गहराई से नि:सृत होते हैं; जहां अथक प्रयास उत्कृष्टता के स्वागत को तत्पर हों; जहां तर्क की निर्मल धारा निर्जीव आदतों की शून्य मरूभूमि में अपने पथ से न भटकी हो; जहां मन सदैव विस्तृत होने वाले विचारों और कर्मों की ओर अग्रसर रहता हो-मेरे पिता, स्वतंत्रता के ऐसे स्वर्गलोक में मेरे देश की आंखे खुलें।

धन्यवाद ।