16वीं भारतीय सहकारिता कांग्रेस के उद्घाटन के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण
सीरी फोर्ट स्टेडियम : 25-06-2013
Download : Speeches (246.38 किलोबाइट)
देवियो और सज्जनो,
मुझे 16वीं भारतीय सहकारिता कांग्रेस के उद्घाटन के अवसर पर यह व्याख्यान देकर अत्यंत प्रसन्नता हो रही है।
भारत में, सदस्यों द्वारा गठित सहकारी संस्थाएं अथवा सामाजिक उद्यम बहुत पहले से विद्यमान रहे हैं। सहकारी संस्थाएं इस सिद्धांत पर आधारित हैं कि किसी उद्यम की रचना, उसके रखरखाव तथा विकास में हर-एक सदस्य को समान समझा जाए तथा उसके अधिकार और उत्तरदायित्व समान हों। सहकारी संस्थाएं वैयक्तिकता का एक उपकरण के रूप में उपयोग करते हुए सामूहिक और संयुक्त विकास के लिए उनकी क्षमता को एकजुट करती हैं और उनके प्रयासों में, लाभ के बजाए व्यक्तियों को प्राथमिकता दी जाती है। सहकारी संस्थाओं में ही लोकतंत्र तथा सबकी भलाई के आदर्श जीवंत होते हैं। मैं मानता हूं कि हमारे राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में इन आदर्शों की इससे पहले कभी भी इतनी जरूरत नहीं थी। इसलिए इस कांग्रेस का विषय ‘सहकारी उद्यम बनाएं, बेहतर विश्व’ सर्वाधिक समीचीन है।
भारत में सहकारिता आंदोलन का इतिहास सौ वर्ष से भी अधिक पुराना है। औपचारिक सहकारिता ढांचों के अस्तित्व में आने से भी पहले भारत में सहकार तथा सहकारिता की परिपाटी विद्यमान थी। ग्रामीण समुदाय, ग्रामीण हौजों अथवा ग्रामीण वनों, सामूहिक बीजों जैसी सामूहिक परिसंपत्तियों का सृजन करते थे तथा अपनी सामूहिक फसलों को साझा करते थे। 19वीं सदी के उतरार्द्ध में खेती के हालातों तथा संस्थागत वित्त व्यवस्था के अभाव में भारतीय किसान भारी कर्ज में दब गए। इसके उत्तर में, बहुत सी सरकारी पहलें शुरू की गई, जिनमें सहकारी ऋण समिति अधिनियम 1904 भी शामिल था। इसके बाद अक्तूबर 1946 में तब इतिहास रचा गया जब दो प्राथमिक दुग्ध उत्पादक समितियां पंजीकृत की गई। इसके बाद उसी वर्ष खेड़ा जिला सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ का पंजीकरण किया गया, जिसे अमूल के नाम से जाना जाता है। 1947 में भारत को आजादी मिलने के बाद सहकारिता के विकास को उचित मान्यता मिली तथा सहकारी संस्थाओं को भारत के योजना आयोग द्वारा निर्मित पंचवर्षीय योजनाओं में प्रमुख भूमिका प्रदान की गई।
देवियो और सज्जनो,
हमारे देश में सहकारी संस्थाएं, ग्रामीण क्षेत्रों में समावेशी विकास के लिए सामाजिक आर्थिक प्रगति लाने वाली प्रमुख संस्थाएं हैं।
हमारे महान राष्ट्रीय नेताओं को आजादी मिलने से पहले ही सहकारिता की क्षमता का आभास हो चुका था। वर्षों तक सावधानीपूर्वक चिंतन, तर्क वितर्क तथा विचार-विमर्श के बाद उन क्षेत्रों को चिह्नित किया गया जिनमें सहकारिता से उपलब्धि प्राप्त की जा सकती थी। राष्ट्रपिता महात्मागांधी ने कहा था: ‘सहकारिता आंदोलन भारत के लिए एक वरदान होगा।’ उन्होंने कहा था ‘समय के साथ साथ... सहकारी संस्थाएं... अपना स्वयं का आकार तथा स्वरूप ग्रहण कर लेंगी जिसका आज अंदाजा नहीं लगाया जाना जरूरी नहीं है।’ उन्होंने भारत के विभिन्न हिस्सों में स्थापित चर्खा केंद्रों का ‘दुनिया में सबसे बड़ी सहकारी समितियों’ के रूप में उल्लेख किया था।
सहकारिता की सृजनात्मक क्षमताओं के बारे में इस अंतदृष्टि में, लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण तथा पंचायती राज के मूल्य तथा उनकी अनिवार्यता के प्रति प्रखर जागरूकता निहित थी। सहकारी संस्थाओं को भारत की अपनी स्वाभाविक प्रवृति, समय की कसौटी पर खरी ग्रामीण परंपराओं, तथा हमारे गांवों के भारतीय उद्यमों की स्वाभाविकता विशेषताओं के अनुरूप माना गया।
इसलिए, भारत के संविधान के भाग IV में, राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों (अनुच्छेद-43) में आर्थिक विकास को प्रोत्साहन देने के लिए ‘सहकारी आधार’ का उल्लेख किया गया है। हमारे राष्ट्र निर्माताओं ने कृषि उद्योग तथा सेवा क्षेत्र के विकास में सहकारिता आंदोलन की क्षमता के पूर्ण उपयोग की परिकल्पना की थी। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, जिन्होंने आधुनिक भारत के निर्माण के लिए औद्योगिक आधार के विकास हेतु निर्णायक प्रेरणा प्रदान की थी, भी हमारे अर्थव्यवस्था में रूपान्तरण लाने के लिए सहकारिता आंदोलन को बढ़ावा देने के प्रति संकल्पबद्ध थे। उन्होंने कहा था ‘जहां पंचायत ग्रामीण जीवन के प्रशासनिक पहलुओं का प्रतिनिधित्व करेंगी वहीं सहकारी संस्थाएं ग्रामीण जीवन के आर्थिक पक्ष का प्रतिनिधित्व करेंगी... यदि सहकारी संस्थाएं ठीक ढंग से कार्य करें तो वे उद्योगों तथा इसके सहायक कार्यकलापों को शुरू करने में सहायता करेंगी... सहकारी संस्थाएं (न केवल) बेहतर खेती के लिए बल्कि लोगों के कार्य तथा अस्तित्व के उच्चतर स्तर का प्रतीक हैं।’
आज छह लाख सहकारी संस्थाओं और उनके 24 करोड़ सदस्यों के नेटवर्क की बदौलत भारतीय सहकारिता आंदोलन समतापूर्ण तथा समावेशी विकास सुनिश्चित करने के लिए कारगर आर्थिक उपकरण सिद्ध हुआ है। भारत में सहकारी संस्थाओं ने हमारी अर्थव्यवस्था के समग्र आर्थिक विकास में प्रत्यक्ष तथा महत्वपूर्ण योगदान दिया है। खासकर कृषि ऋण, चीनी, डेयरी, वस्त्र, मतस्यपालन, उर्वरक वितरण तथा कृषि निवेश, भंडारण तथा विपणन के क्षेत्र में ऐसा हुआ है। उन्होंने यह सुनिश्चित किया है कि विकास तथा प्रगति से प्राप्त लाभ में से छोटे तथा सीमांत किसानों को उचित हिस्सा प्राप्त हो।
देवियो और सज्जनो,
विश्व में सहकारिता के लाभ और महत्व को पहचानते हुए, संयुक्त राष्ट्र ने सहकारी संस्थाओं और सामाजिक-आर्थिक विकास में उनके योगदान तथा सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों की प्राप्ति के बारे में जागरूकता आदि के लिए 2012 को अंतरराष्ट्रीय सहकारिता वर्ष घोषित किया। एक बेहतर विश्व के निर्माण में सहकारी संस्थाओं के योगदान का उल्लेख करते हुए, संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने कहा, ‘सहकारी संस्थाओं ने मूल्यों पर खास ध्यान देकर स्वयं को, एक ऐसे लचीले और व्यावहारिक कारोबारी मॉडल के रूप में सिद्ध किया है जो विषम परिस्थितियों में भी फल-फूल सकता है। इस सफलता ने अधिकांश परिवारों और समुदायों को गरीबी के गर्त में गिरने से बचाया है।’
सरकार ने हाल ही में 97वें संवैधानिक संशोधन को अधिनियमित करके सहकारी संस्थाओं के लिए एक बड़ी पहल की है जिससे सहकारी संस्थाओं के विकास के लिए एक अनुकूल वातावरण का निर्माण होगा। इससे सहकारी संस्थाओं के लोकतांत्रिक, स्वायत्त और पेशेवर कामकाज में मदद मिलेगी। इस संशोधन के द्वारा सहकारी संस्था के निर्माण का अधिकार, एक मौलिक अधिकार बन गया है। अधिनियम से एक सुदृढ़ सहकारी आंदोलन के विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ है। इस पहल को आगे जमीनी स्तर तक ले जाने के लिए, संबंधित राज्य सरकारों को भी आवश्यकता होने पर राज्य कानूनों के संशोधन द्वारा अनुकूल माहौल तैयार करना होगा।
आज सहकारी क्षेत्र में 99 प्रतिशत गांव और 71 प्रतिशत ग्रामीण परिवार शामिल हैं। सहकारिता इस देश के विशाल पिछड़े इलाकों तक, जहां गरीब और उपेक्षित वर्ग रह रहा है, पहुंचने का सर्वोत्तम तरीका है। सहकारी संस्थाओं ने अनेक आय अर्जन कार्यकलापों, प्रौढ़ शिक्षा और सहकारी शिक्षा कार्यक्रमों के आयोजन द्वारा स्वयं सहायता समूहों की मदद करके महिला सशक्तीकरण में योगदान दिया है। सहकारी संस्थाओं ने ‘ प्रो. अमर्त्य सेन के शब्दों में, शिक्षा, रोजगार, खाद्य सुरक्षा, वित्तीय सुरक्षा और स्वास्थ्य देखभाल जैसी बुनियादी मानव क्षमताओं की प्राप्ति को लोकतांत्रिक बनाने में प्रमुख भूमिका निभाई है। सहकारी संस्थाओं ने न केवल अपने सदस्यों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को सुधारने बल्कि सामाजिक संगठन और समन्वय में बदलाव के कारक की सार्थक भूमिका निभाई है।
कुछ लोगों का तर्क है कि उदारवादी और वैश्वीकृत आर्थिक व्यवस्था में सहकारी संस्थाएं कमजोर हो गई हैं। मैं इससे पूरी तरह असहमत हूं। मेरे विचार से वर्तमान संदर्भ में सहकारी संस्थाओं की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है। हाल के वैश्विक वित्तीय संकट ने वैश्विक वित्तीय संस्थाओं के स्वामित्व वाले अत्यधिक जोखिमपूर्ण निवेशक की तुलना में कम जोखिमपूर्ण ग्राहक स्वामित्व वाली सहकारी बैंकिंग के फायदे को प्रदर्शित किया है।
हमारे देश की सहकारी संस्थाएं अनेक चुनौतियों और समस्याओं का सामना कर रही हैं। विभिन्न क्षेत्रों, कार्यकलापों और प्रांतों में इनका प्रदर्शन अलग-अलग है इसलिए उन्हें अपनी कुशलता बढ़ाकर स्वयं को पुन: अभिमुख करना होगा। उन्हें प्रमुख ग्राहकों, कृषकों, किसानों, कारीगरों, उत्पादकों और महिलाओं की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए स्वयं को पेशेवर ढंग से विकसित करना चाहिए। यद्यपि, सहकारी संस्थाएं विषम समस्याओं का सामना कर रही हैं परंतु यह भी सच है कि वे उन अनेक समस्याओं का समाधान भी प्रस्तुत कर रही हैं जिनसे हमारी अर्थव्यवस्था और समुदाय जूझ रहे हैं।
सहकारी संस्थाओं को, हमारी अर्थव्यवस्था के एक ऐसे प्रमुख क्षेत्र के रूप में मान्यता मिलनी चाहिए जो उपेक्षित और कमजोर वर्गों की आवश्यकताएं पूरी करता है। उन्हें वाणिज्यिक रूप से व्यवहार्य बनाया जाना चाहिए तथा उनका ग्रामीण स्वास्थ्य, शिक्षा, ऋण, जल संचयन, सटीक कृषि, पर्यटन, संचार और आतिथ्य आदि जैसे क्षेत्रों में प्रभावी रूप से प्रयोग किया जाना चाहिए, जिनमें सहकारी संस्थाएं एक बदलाव ला सकती हैं।
उन्हें न केवल समावेशी विकास प्राप्त करने के हमारे प्रयासों में प्रमुख स्थान मिलना चाहिए बल्कि उनमें सदस्यों द्वारा, सदस्यों के लिए और सदस्यों में से, के सिद्धांतों पर स्थानीय रूप से संचालित होने का गुण मौजूद रहना चाहिए। ऊपर से नियंत्रण की पद्धति से बचा जाना चाहिए तथा स्थानीय प्रयासों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। सहकारी संस्थाओं का प्रबंधन अच्छी तरह प्रशिक्षित और उत्साही सदस्यों द्वारा किया जाना चाहिए। सहकारी संस्थाएं लोगों को सबल बनाती हैं, क्षमता पैदा करती हैं, और सक्षम बनाती हैं। वे सदस्यों की योग्यता का उपयोग करने में मदद करती हैं। एक वैश्वीकृत दुनिया में, जहां भारत जनसांख्यिकीय बढ़त से फायदा उठाने के सही स्थिति में है, सहकारी संस्थाएं युवाओं को शिक्षित और कुशल बनाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं।
भारत में विश्व का विशालतम और सबसे विविधतापूर्ण सहकारी आंदोलन मौजूद है। केवल आर्थिक विकास में ही नहीं बल्कि एक राष्ट्र के मानव संसाधन के विकास में भी सहकारी संस्थाओं की क्षमता के बारे में सभी सहमत हैं। यदि हम विश्व के विभिन्न हिस्सों में सहकारी संस्थाओं के योगदान को देखें तो हमारे पास उनका अनुकरण करने की बेहतर क्षमता है। हमें सहकारी क्षेत्र में एक प्रकार के पुनर्जागरण की आवश्यकता है। मुझे उम्मीद है कि इस सहकारिता सम्मेलन में हुए विचार-विमर्श से, एक बेहतर, अधिक समतामूलक और सुरक्षित विश्व की ओर ले जाने वाले सहकारी क्षेत्र में सुधार की सतत् कार्यनीतियों का निर्माण हो पाएगा।
धन्यवाद,
जय हिन्द!