भारतीय विज्ञान कांग्रेस के 100वें अधिवेशन के उद्घाटन के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण

कोलकाता, पश्चिम बंगाल : 03-01-2013

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डॉ. मनमोहन सिंह, भारत के माननीय प्रधान मंत्री तथा भारतीय विज्ञान कांग्रेस एसोसियेशन के सामान्य अध्यक्ष, श्री नारायणन, पश्चिम बंगाल के महामहिम राज्यपाल, सुश्री ममता बनर्जी, पश्चिम बंगाल की माननीया मुख्यमंत्री, श्री जयपाल रेड्डी, माननीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री तथा पृथ्वी विज्ञान मंत्री, भारत सरकार, पूर्व सामान्य अध्यक्ष, चयनित अध्यक्ष एवं महासचिवगण, भारतीय विज्ञान कांग्रेस एसोसियेशन की परिषद तथा कार्यकारी समिति के सदस्यगण, नोबल तथा एबल पुरस्कार विजेताओं सहित विश्व की विज्ञान विभूतियों, विशिष्ट मित्रो तथा प्रेस और मीडिया के प्रतिनिधिगण,

सबसे पहले मैं इस विज्ञान कांग्रेस के शतवार्षिक अधिवेशन के प्रतिभागियों तथा देश की जनता को एक उद्देश्यपूर्ण तथा सार्थक नववर्ष की शुभकामनाएं देता हूं। सामान्यत: भारतीय विज्ञान कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशनों का उद्घाटन प्रधानमंत्री करते हैं। इस वर्ष, एसोसियेशन ने प्रधानमंत्री को इसका सामान्य अध्यक्ष चुना है। मैं इस ऐतिहासिक वर्ष में भारतीय विज्ञान कांग्रेस का सामान्य अध्यक्ष चुने जाने पर डॉ. मनमोहन सिंह को बधाई देता हूं। यह उपयुक्त सम्मान है। शिक्षा, विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी पर डॉ. मनमोहन सिंह के अटल विश्वास पर मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव से भरोसा दिला सकता हूं। मेरा मानना है कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी सेक्टर का अच्छा कार्य निष्पादन अधिकतर विज्ञान और प्रौद्योगिकी के लिए प्रधानमंत्री द्वारा उत्प्रेरित उदार सरकारी सहयोग के कारण ही संभव हो पाया है।

देवियो और सज्जनो,

मैं कलकत्ता विश्वविद्यालय का पूर्व छात्र हूं। अत: यह स्वाभाविक ही है कि कलकत्ता विश्वविद्यालय द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित समारोह में भाग लेकर मुझे खुशी हो रही है। एक पूर्व छात्र के रूप में, मैं भारतीय विज्ञान कांग्रेस को, इसके शुरुआती वर्षों में पोषित करने में इस विश्वविद्यालय तथा सर आशुतोष मुखर्जी की प्रमुख भूमिका का बहुत प्रसन्नता के साथ स्मरण करता हूं। ऐतिहासिक रूप से कोलकाता संस्कृति का, ज्ञान का शहर रहा है। भारत में विभिन्न कार्यों के लिए प्रदान किए गए सभी नोबल पुरस्कार किसी न किसी तरह से कोलाकाता शहर से जुड़े हैं। सर रोनाल्ड रोस ने इस शहर में मलेरिया पर >अग्रणी कार्य किया, जिसके लिए उन्हें 1902 में नोबल पुरस्कार प्रदान किए गए। सर सी.वी. रमन की प्रख्यात खोज, द रमन इफैक्ट, जिसके लिए इन्हें 1930 में भौतिकी में नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया था, भी यहीं कोलकाता में हुई थी। सुप्रसिद्ध रवीन्द्र नाथ टैगोर तथा मदर टेरेसा को भी कोलकाता में किए गए उनके कार्यों के लिए नोबेल पुरस्कार प्रदान किए गए थे। विज्ञान के साथ संबद्ध सबसे पहले संगठन जैसे द एसियाटिक सोसाइटी, द इन्डियन एसोसियेशन फोर द कल्टिवेशन ऑफ साइन्स तथा द इन्डियन विज्ञान कांग्रेस एसोसियेशन यहीं पर स्थापित हुए थे। इन संगठनों ने विज्ञान ने प्रख्यात सख्शियतों को पैदा किया जिन्होंने वैज्ञानिक संस्कृति को बढ़ावा दिया। सर जे.सी.बोस, प्रो. सत्येन्द्र नाथ बोस, पी.सी. रे, मेघनाद साहा तथा बहुत से अन्य लोगों ने इस देश में आधुनिक विज्ञान की इमारत का निर्माण किया। सर जे.सी. बोस को इस देश के पहले आधुनिक वैज्ञानिक के रूप में जाना जाता है। रेडियो के आविष्कार के लिए उनका मौलिक योगदान सर्वविदित है। हाल ही में हिग्स बोसोन पार्टिकल की खोज से पार्टिकल भौतिकी के क्षेत्र में प्रोफेसर सत्येन्द्र नाथ बोस के युगांतरकारी योगदान पर प्रकाश पड़ता है। मुझे उम्मीद है कि इस शहर के आधुनिक वैज्ञानिक पुराने जमाने के इन प्रमुख वैज्ञानिकों के उदाहरणों का अनुकरण करेंगे।

भारतीय विज्ञान कांग्रेस एसोसियेशन ने मुझे सामान्य अध्यक्षों के सभी व्याख्यानों तथा पिछले वर्षों के दौरान दिए गए उद्घाटन व्याख्यानों का एक संकलन प्रदान किया है। ये बहुत रोचक हैं। एक मायने में ये पिछले 100 वर्षों में भारतीय विज्ञान के उद्विकास का लेखाजोखा हैं। 1957 में मैं कलकत्ता विश्वविद्यालय का विद्यार्थी था। उसी वर्ष, भारत के प्रधानमंत्री पंडित नेहरू इसके मुख्य अतिथि थे। बंगाल के मुख्यमंत्री, दूरद्रष्टा प्रो. बी.सी. राय विज्ञान कांग्रेस के अध्यक्ष थे। इस कांग्रेस में बी.सी. राय के व्याख्यान का विषय था, ‘मानव कल्याण तथा देश के विकास के लिए विज्ञान’। उस समय जो विषय था, वह आज के सत्र के विषय के समान था अर्थात् ‘भारत के भविष्य के निर्माण के लिए विज्ञान’। मैं बी.सी. रॉय के भाषण के अंत में दिए गए संदेश से बहुत प्रभावित हुआ था। उन्होंने कहा था, ‘‘समय के बादलों में अपने पीछे हमारी बहुत-सी समस्याओं, संघर्षों और खतरों को भले ही छिपा लिया हो, परंतु समय ही अनजान मुश्किलों के समाधान अथवा ऐसे सुखद आश्चर्य सामने ला सकता है जिसे मनुष्य को, अपने विज्ञान के ज्ञान से विश्वास, उम्मीद और सद्भावना के साथ, अपने लाभ में बदलने के लिए तैयार रहना चाहिए।’’

देवियो और सज्जनो,

मैं भारतीय विज्ञान कांग्रेस को अपने 100वें अधिवेशन के लिए केन्द्रीय विषय के रूप में ‘भारत के भविष्य के निर्माण के लिए विज्ञान’ के चयन के लिए बधाई देता हूं। विज्ञान को समाज के अंदर एक ऐसी संस्कृति से नजदीकी से जोड़ने की जरूरत है जो कि वैज्ञानिक ज्ञान पर निर्मित हो। यह एक ऐसे वैज्ञानिक मनोवृत्ति की मांग करता है जिसके बारे में पंडित नेहरू सदैव बात करते थे। वैज्ञानिक संस्कृति मांग करती है कि व्यक्तियों, समाजों और देशों को अपने चयन और निर्णय वैज्ञानिक तर्क के आधार पर लेने चाहिए। भारतीय अर्थव्यवस्था विकास के नए प्रतिमान अर्थात् तीव्र, सतत् तथा समावेशी विकास, समता के साथ, को अपना रही है। यह एक नई संकल्पना है क्योंकि इसमें तीव्र विकास को समावेशिता तथा सतत्ता के उद्देश्यों के साथ रखा गया है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए विज्ञान, प्रौद्योगिकी तथा नवान्वेषण का कैसे उपयोग किया जाए, इस विषय पर गहन विचार-विमर्श जरूरी है। मुझे विश्वास है कि आप इसके सभी पहलुओं और प्रभावों पर पूरी गंभीरता से चर्चा करेंगे।

देवियो और सज्जनो,

विज्ञान मानव मस्तिष्क का सृजनात्मक प्रयास है। जब अध्ययन का आनंद ‘प्रकृति का सत्य जानने’ में हो, तब व्यक्तिगत शौक के रूप में विज्ञान के अध्ययन को नियंत्रित अथवा निर्देशित नहीं किया जा सकता। प्रकृति के आश्चर्यों की खोज के लिए तत्पर तथा सृजनात्मक मस्तिष्क जरूरी है। विज्ञान सार्वभौमिक तथा मौलिक सत्य चाहता है। उत्कृष्टता की संस्कृति, सृजनात्मक वैज्ञानिकों की दूसरी प्रकृति होती है। विश्व के प्रख्यात वैज्ञानिक सदैव इस विषय पर चिंतित रहे हैं कि प्राकृतिक परिघटनाओं की उनकी समझ का उपयोग भविष्य में सामाजिक समस्याओं के समाधन के लिए कैसे किया जा सकता है। सर जे.सी. बोस ने सौ वर्ष से पहले 5 मार्च 1885 को अपनी डायरी में लिखा था, ‘‘मैं यह सोचता रहा हूं कि कटिबंधीय इलाकों में जो सौर ऊर्जा बर्बाद होती है, उसे किस तरह नए तीरके से उपयेग में लाया जा सकता है। हाँ, पेड़ सौर ऊर्जा संरक्षित करते हैं परंतु क्या सूर्य की उस चमकदार ऊर्जा के सीधे उपयोग का कोई और तरीका नहीं है?’’ तभी कृत्रिम फोटोसिंथेसिस का बीजारोपण हुआ। अभी भी दुनिया भर में इस क्षेत्र में सक्रिय अनुसंधान हो रहे हैं। उनके शिक्षक प्रो. सत्येन्द्रनाथ बोस एक सशक्त वक्ता और प्रेरक शिक्षक थे। उन्होंने ‘विद्युत’ तथा ‘आणविक ऊर्जा’ पर अपने व्याख्यान ऐसी भाषा में दिए जिन्हें आम व्यक्ति भी समझ सकता था। उन्होंने लोगों की कई पीढ़ियों को वैज्ञानिक प्रयासों की ओर प्रेरित किया। जनता तथा राजनीति को विज्ञान की समझ होनी बहुत जरूरी है। इसके लिए मैं आप सभी से आग्रह करूंगा कि आप विज्ञान के संप्रेषण के लिए ऐसे आधुनिक साधन अपनाएं जो कि आम आदमी को समझ में आ सकें। इस समझ से भारतीय समाज में विज्ञान की संस्कृति बनाने में योगदान मिलेगा।

देवियो और सज्जनो,

किसी भी देश की सरकार की पहली चिंता इसकी जनता की खुशहाली में वृद्धि करना है। प्रौद्योगिकी में जनता की भौतिक खुशहाली लाकर उनके जीवन में बदलाव करने की शक्ति है। विभिन्न देशों में एक ही पीढ़ी के अंदर रूपांतरकारी बदलाव आए हैं और वह अब तुलनात्मक रूप से कमजोर के मुकाबले विकासमान अर्थव्यवस्था बन चुके हैं। इस रूपांतरकारी बदलाव में प्रौद्योगिकी आधारित आर्थिक प्रगति ने प्रमुख भूमिका निभाई है। प्रौद्योगिकी को विज्ञान से प्राप्त ज्ञान का तार्किक परिणाम कहा जा सकता है परंतु यह केवल विज्ञान के अनुप्रयोग से कहीं अधिक है। प्रौद्योगिकी संदर्भगत होती है। प्रौद्योगिकी का आर्थिक मूल्य होता है। हम सभी मोबाइल टेलीफोन और इन्टरनेट द्वारा लाए जा रहे रूपांतरकारी बदलावों के साक्षी हैं। भारत में अक्तूबर, 2012 में मोबाइल फोन प्रयोक्ताओं की संख्या 19 करोड़ के लगभग थी जो कि चीन के बाद पूरे विश्व में सबसे अधिक दूसरे नम्बर पर थी। भारत की 74.21 प्रतिशत का मोबाइल फोन घनत्व दूसरे उच्च रैंक वाले देशों के मुकाबले अच्छा है। प्रौद्योगिकी का दूसरा आश्चर्य, इंटरनेट आज सूचना और संचार का महत्त्वपूर्ण स्रोत बन चुका है। इंटरनेट प्रयोक्ताओं की दृष्टि से भारत का चीन और अमरीका के बाद तीसरा नम्बर है। परंतु जनसंख्या के मुकाबले इंटरनेट की पहुंच केवल 11.4 है जो कि भविष्य के लिए बहुत संभावनाओं की ओर इंगित करता है।

प्रौद्योगिकी का दूसरा रूपांतरकारी अनुप्रयोग आधार परियोजना है जिसके तहत सामाजिक क्षेत्र की विभिन्न स्कीमों के लाभभोगियों को सीधे लाभ स्थांतरित करने का प्रयास किया जा रहा है। मैं समझता हूं कि आधार आधारित सेवा प्रदान करने का कार्य बीस जिलों में शुरू हो चुका है। वर्ष 2012-13 के बजट में पचास जिलों को सेवा देने का लक्ष्य रखा गया है और मुझे उम्मीद है कि इसे प्राप्त कर लिया जाएगा।

देवियो और सज्जनो,

यदि हम वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था में स्पर्द्धा करना चाहते हैं तो नवान्वेषण करना आवश्यक है। भारत ने 2010-20 को नवान्वेषण दशक घोषित किया है। आज घोषित विज्ञान, प्रौद्योगिकी और नवान्वेषण नीति में नवान्वेषण का एक माहौल तैयार करने तथा समाज में नवान्वेषकों, विशेषकर जमीनी स्तर के नवान्वेषक जो अपनी प्रतिभा से स्थानीय व जनसंख्या को सीधे प्रभावित करने वाली प्रक्रियाओं में मूल्य संवर्धन कर रहे हैं, को प्रोत्साहित, सम्मानित और पुरस्कृत करने का एक खाका तैयार किया गया है।

नई विज्ञान, प्रौद्योगिकी और नवान्वेषण नीति में हमारी अनुसंधान और विकास प्रणाली को सही आकार देने के मुद्दे पर ध्यान दिया गया है। विशेषकर, भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं में संतुलित आर्थिक विकास का परम महत्त्व है। कृषि, विनिर्माण और मूल्य संवर्धित सेवाओं में हमारे युवाओं की उपयोगी संबद्धता देश के संतुलित विकास का मूलमंत्र है। मुझे विश्वास है कि नई विज्ञान, प्रौद्योगिकी और नवान्वेषण नीति, शांति और समावेशन के साथ समृद्धि सुनिश्चित करने वाले बदलाव के लिए प्रौद्योगिकी आधारित मार्ग को प्रशस्त करेगी।

देवियो और सज्जनो,

हमें, समाज में वैज्ञानिक संस्कृति के विकास को महत्त्व देने वाली शैक्षिक प्रणाली की आवश्यकता है। केवल ऐसा आर्थिक विकास, जो बदलाव के आयामों को संभालने के लिए सम्बन्धित ज्ञान क्षमता से रहित हो न तो पर्याप्त होगा और न ही उपयुक्त।

हमारे प्राचीन विश्वविद्यालय, चाहे नालंदा हो या तक्षशिला, मूल्य आधारित सर्वांगीण शिक्षा पर केन्द्रित थे। संभवत: नब्बे वर्ष पूर्व रवीन्द्रनाथ ठाकुर के एक संबोधन से यह उद्धरण लेना उपयुक्त होगा, ‘‘आप जानते हैं कि हमारे देश में विद्यार्थियों से शिक्षण के बदले में कोई शुल्क न लिए जाने की परंपरा है क्योंकि हम भारतीय मानते हैं कि जिसके पास ज्ञान है, उस पर उसे विद्यार्थियों को प्रदान करने की जिम्मेदारी है।’’ स्वामी विवेकानंद सदैव प्राच्य सांस्कृतिक मूल्यों का पाश्चात्य व्यावहारिक तरीकों के साथ समावेश करने के लिए कहा करते थे। नवान्वेषण, ज्ञान को सामाजिक मूल्य और संपत्ति में बदलने का एक आधुनिक साधन है। भारतीय दर्शन का उद्देश्य, धन और भौतिक सफलता की प्राप्ति और आत्मसंयम व आंतरिक सुख की खोज के बीच संतुलन पैदा करना है। भारतीय दर्शन की गहन आत्मविश्लेषणात्मक किंतु व्यावहारिक प्रज्ञा को प्रतिस्पर्द्धा के रूपक में संभावनाओं की तलाश करनी चाहिए और आधुनिक विश्व में लोकप्रियता अर्जित करनी चाहिए।

मैं स्वामी विवेकानंद के इस कथन से अपनी बात समाप्त करता हूं : ‘‘बहुत सारी मशीनरी और ऐसी ही वस्तुओं के प्रयोग से भौतिक जीवन के सुखों को बढ़ाने में सफलता प्राप्त करने से ही कोई राष्ट्र सभ्य नहीं बन सकता... इस युग में जहां एक ओर लोगों को अत्यंत व्यावहारिक बना होगा वहीं दूसरी ओर, उन्हें गहरा आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करना होगा।’’

मैं वैज्ञानिक समुदाय का आह्वान करना चाहूंगा कि वह हमारे भविष्य को संवारने के लिए, एक ऐसी वैज्ञानिक संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए कार्य करें जिसमें शांति, उत्कृष्टता और समता तथा प्राच्य मूल्य और पाश्चात्य वैज्ञानिक पद्धति का संगम हो और उनका साथ-साथ अस्तित्व बना रहे। भारत के 2035 तक एक प्रमुख आर्थिक शक्ति के रूप में उभरने की अपेक्षा है। हमें उच्च मानव और सामाजिक मूल्यों से युक्त एक प्रमुख ज्ञान शक्ति के रूप में भी उभरना चाहिए। इस संबंध में, मैं उल्लेख करना चाहूंगा कि सी.वी. रमन द्वारा भौतिकी का नोबेल पुरस्कार जीते हुए 83 वर्ष का लम्बा समय हो गया है। भारत ने लम्बे समय से विज्ञान में कोई और नोबेल पुरस्कार नहीं जीता है। मैं यहां उपस्थित वैज्ञानिक समुदाय का आह्वान करता हूं कि वह इस चुनौती को स्वीकार करें और समयबद्ध तरीके से इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रयास करें।

इन्हीं शब्दों के साथ, मैं, भारतीय विज्ञान कांग्रेस के 100वें अधिवेशन का औपचारिक रूप से उद्घाटन करता हूं।

धन्यवाद, 
जय हिंद!