‘लोकतंत्र और शासन’ विषय पर उच्च शैक्षणिक तथा अनुसंधान संस्थानों को भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण
राष्ट्रपति भवन से विडियो कान्फ्रेंसिंग के माध्यम से, राष्ट्रपति भवन, दिल्ली : 05-08-2014
Download : Speeches (330.1 किलोबाइट)
उच्च शिक्षा संस्थानों के प्रमुख, अन्य उच्च शैक्षणिक तथा अनुसंधान संस्थानों के अध्यक्ष,संकाय सदस्य;मेरे प्यारे विद्यार्थियो:
1.मुझे इस नए शैक्षिक सत्र की शुरुआत पर आपको संबोधित करके खुशी हो रही है। मैं उन सभी विद्यार्थियों का स्वागत करता हूं जिन्होंने पहली बार विश्वविद्यालयों और अन्य उच्चतर शिक्षा केन्द्रों में प्रवेश लिया है। फरवरी, 2013में राष्ट्रपति भवन में आयोजित केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के कुलपतियों के वार्षिक सम्मेलन के दौरान यह निर्णय लिया गया था कि मैं वर्ष में दो बार,एक बार कैलेंडर वर्ष के आरंभ में और दोबारा शैक्षिक वर्ष की शुरुआत में,शैक्षिक संस्थानों के साथ ई-संवाद करुंगा। मैंने जनवरी, 2014में पहली बार ई-प्लेटफॉर्म के जरिए संवाद दिया था। मैं वीडियो वार्ता को संभव बनाने के लिए राष्ट्रीय ज्ञान नेटवर्क के प्रो. एस.वी. राघवन और उनकी टीम तथा राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केन्द्र की टीम के प्रति अपना आभार प्रकट करता हूं।
प्यारे विद्यार्थियो,
2. आप, हमारे देश के युवा हमारा भविष्य हैं। अपकी इस राष्ट्र की प्रगति तथा हमारी जनता के कल्याण में हिस्सेदारी है। इस वर्ष अप्रैल और मई में16वीं लोकसभा के आम चुनाव संपन्न हुए थे। चुनाव लोकतंत्र का एक महोत्सव है और शांति,प्रगति और समृद्धि की दिशा में राष्ट्र की यात्रा में एक उल्लेखनीय पड़ाव है। आप में से बहुत से लोगों ने इस वर्ष के चुनावों में पहली बार मतदान किया है। हमारी लोकतंत्र की जड़ें कितनी गहरी हैं इसे इस तथ्य से जाना जा सकता है कि2004और 2009 के दोनों आम चुनावों के लगभग58प्रतिशत के स्तर से मतदाताओं की संख्या इस वर्ष के चुनावों में उत्साहजनक रूप से66प्रतिशत तक बढ़ी है। मैं, दुनिया की इस विशालतम लोकतांत्रिक प्रक्रिया में आपकी उत्साहजनक भागीदारी के लिए आपकी सराहना करता हूं।
3. इस चुनाव ने तीस वर्षों के बाद सुशासन प्रदान करने के जनादेश के साथ एक स्थिर सरकार के गठन के लिए एक दल को बहुमत प्रदान किया है। सुशासन वास्तव में,व्यवस्था स्थापित करने,सामाजिक और आर्थिक प्रगति करने तथा जनता के कल्याण को बढ़ावा देने का एक तंत्र है। विकासशील देश अनेक सामाजिक-आर्थिक उद्देश्यों की प्राप्ति का प्रयास कर रहे हैं,हाल के वर्षों में शासन के स्तर पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा है। इस पृष्ठभूमि में मैंने आज समसामयिक रूप से प्रासंगिक लोकतंत्र और शासन के मुद्दे पर आपको संबोधित करने का निर्णय लिया है।
4. यद्यपि सुशासन कोई दो दशक पहले विकास के शब्दकोश में शामिल हुआ है,परंतु इसके मूल तत्व प्राचीन काल से ही भारत में विद्यमान थे। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में राजा के गुणों का उल्लेख किया था, ‘‘प्रजा की प्रसन्नता राजा की प्रसन्नता है;उनकी भलाई ही उसकी भलाई है,उसका अपना कल्याण ही सच्चा कल्याण नहीं है बल्कि,उसकी प्रजा का कल्याण ही उसका सच्चा कल्याण है। अत: राजा को अपनी प्रजा की समृद्धि और कल्याण के लिए कार्य करने में तत्पर रहना चाहिए।’’भारत की स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर, पंडित नेहरु ने नियति के साथ मुलाकात के अपने भाषण में गरीबी,अज्ञानता,रोग और अवसरों की असमानता की समाप्ति के लिए स्वतंत्र भारत के लक्ष्य का एक खाका खींचा था। यह स्पष्ट था कि सामाजिक और आर्थिक न्याय के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं है।
5. स्वतंत्रता के समय, हम भारतीयों ने सरकार के स्वरूप के रूप में लोकतंत्र को चुना था। हमारे लोकतांत्रिक आदर्श संविधान से नि:सृत होते हैं;जो हमारे सभ्यतागत मूल्यों को प्रतिबिंबित करते हैं। उद्देशिका,मौलिक अधिकार, मौलिक कर्तव्य तथा राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में सुशासन के अवयव निहित हैं। उद्देशिका में हमने भारत को एक प्रभुत्वसंपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने तथा सभी नागरिकों को सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक न्याय; विचार, अभिव्यक्ति,विश्वास और धर्म की स्वतंत्रता;प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता को बढ़ाने का दृढ़ संकल्प लिया। मानव गरिमा को बनाए रखने के लिए मौलिक अधिकार अत्यावश्यक हैं। गरीबी उन्मूलन के बिना मानव गरिमा सुनिश्चित नहीं की जा सकती है। नीति निर्देशक तत्व सुशासन कार्यों के महत्वपूर्ण मार्गदर्शक हैं। सुशासन से ही उपेक्षा और पिछड़ेपन को समाप्त किया जा सकता है।1973के केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले में एक महत्वपूर्ण निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने विचार व्यक्त किया था कि नीति निर्देशक तत्व और मौलिक अधिकार समान रूप से बुनियादी हैं। संविधान ने हमें लोकतंत्र के तीन स्तंभ - संसद,कार्यपालिका और न्यायपालिक प्रदान किए हैं। बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रावधान ने एक शक्तिशाली और सतर्क मीडिया को पैदा किया है।
6.भारत में मैं, राज्य की संस्थाओं के माध्यम से जनता के कल्याण हेतु अपने आर्थिक और सामाजिक संसाधनों के कुशल और प्रभावी प्रबंधन के लिए संविधान के ढांचे के अंतर्गत शक्ति के प्रयोग के तौर पर सुशासन को देखता हूं। हमारा संविधान एक जीवंत दस्तावेज है जो समय के साथ विकसित हुआ है और इसके व्यापक प्रावधानों में विकासमान लोकतंत्र की बदलती आवश्यकताओं का ध्यान रखा गया है। यह हमारे सभ्यतागत मूल्यों को निरंतर याद दिलाता है;जिन्हें हम कई बार भूलने लगते हैं। हमें कभी-कभार स्वयं को याद दिलाते रहना चाहिए कि ये मूल्य हमारे लोकतंत्र के संचालन के लिए पावन हैं।
मित्रो:
7.सुशासन किसी भी प्रणाली में स्वत: निहित नहीं होता। इसे,लोकतंत्र द्वारा संस्थाओं को सावधानीपूर्वक विकसित करते हुए पोषित करना होता है। व्यवधान तब आते हैं जब कोई संस्था उस ढंग से कार्य नहीं करती जैसी उससे उपेक्षा की जाती है और इससे दूसरी संस्थाओं का हस्तक्षेप बढ़ता है। इसलिए इन संस्थाओं को समय की जरूरतों को पूरा करने के लिए मजबूत,पुन:स्फूर्त तथा नया स्वरूप दिए जाने की जरूरत है। इसके लिए सिविल समाज की अधिक सहभागिता जरूरी है। इसके लिए जरूरी है जनता द्वारा राजनीतिक प्रक्रिया में स्वतंत्र तथा खुली सहभागिता। इसके लिए जरूरी है लोकतंत्र की संस्थाओं तथा प्रक्रियाओं में युवाओं की निरंतर भागीदारी। इसके लिए जरूरी है मीडिया की ओर से जिम्मेदार व्यवहार।
8.सुशासन जिन अत्यावश्यक पूर्व शर्तों पर निर्भर है वह है कानून के शासन का अपरिहार्य पालन,सहभागितापूर्ण निर्णय,ढांचे की मौजूदगी,प्रतिसंवेदना, पारदर्शिता, जवाबदेही, भ्रष्टाचार रहित समाज,समता तथा समावेशिता। संक्षेप में सुशासन का अर्थ है एक ऐसा ढांचा जिसके केंद्र में जनता की खुशहाली हो। प्रगतिशील कानून अनुकूल पर्यावरण प्रदान करते हैं तथा नागरिकों को अपने हक प्राप्त करने की शक्ति प्रदान करते हैं। इसके कुछ उदाहरण हैं सूचना का अधिकार,शिक्षा,भोजन तथा रोजगार।
9.नवीन कानूनों का कार्यान्वयन केवल मजबूत सुपुर्दगी तंत्रों के द्वारा ही हो सकता है। भ्रष्टाचार के कारण विभिन्न लाभों के एक समान वितरण में व्यवधान आता है। नियमों और प्रक्रियाओं की जटिलता तथा अपारदर्शिता,शक्तियों के प्रयोग में विवेकाधिकार तथा कानूनी प्रावधानों का कमजोर पालन जैसे कारक भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं। जहां हमें भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई के लिए कुछ नई संस्थाओं की जरूरत हो सकती है वहीं इसका समाधान केवल अधिक संस्थाएं खड़ी करने में नहीं है वरन् मौजूदा संस्थाओं में ऐसी मजबूती तथा सुधार लाने में है जिससे वे परिणाम दे सकें।
10.सुशासन के लिए शक्ति के पर्याप्त विकेंद्रीकरण की आवश्यकता है। पंचायतीराज संस्थाओं को वित्तीय स्वायत्तता तथा प्रशासनिक योग्यता की जरूरत है। जनता के साथ वास्तविक शक्ति को साझा करने के लिए शासन के इस तीसरे स्तर में सुधार आवश्यक है।
11.सुशासन का अर्थ सिविल समाज को एक बराबर के सहयोगी के तौर पर शामिल करना है। इसलिए हमें अपने अधिकारों के अलावा अपने कर्तव्यों और दायित्वों के प्रति जागरूक होना चाहिए। सार्वजनिक बहसों में असहिष्णुता और वैमनस्य से बचा जाना चाहिए। हमारे देश को सुविधाओं की चाह रखने वालों की अपेक्षा सर्जनात्मक साझीदारों की आवश्यकता है। मैं आपसे आग्रह करता हूं कि आप एक स्वस्थ लोकतांत्रिक समाज के निर्माण एवं इसके कामकाज के सभी क्षेत्रों में सुशासन परिपाटियों को लागू करने की दिशा में योगदान दें।
मित्रो और प्यारे विद्यार्थियो:
12.डॉ. एस. राधाकृष्णन ने एक बार कहा था, ‘संपूर्ण शिक्षा एक ओर सत्य की खोज है और दूसरी ओर यह सामाजिक बेहतरी का प्रयास है। आप सत्य की खोज कर सकते हैं परंतु आपको समाज की स्थिति सुधारने के लिए इसका प्रयोग करना चाहिए।’मजबूत शिक्षा प्रणाली किसी भी जागरूक समाज की आधारशिला होती है। उच्च शिक्षा के हमारे संस्थान भावी प्रशासकों तथा नीति निर्माताओं के पोषक हैं। प्रगतिशील चिंतन के बीज यहीं पर बोए और पोषित किए जाते हैं। इन संस्थाओं द्वारा मातृभूमि के लिए प्रेम;दायित्वों का निर्वाह; सभी के प्रति करुणा;बहुलवाद के प्रति सहनशीलता;महिलाओं के लिए सम्मान;जीवन में ईमानदारी;आचरण में आत्मसंयम;कार्यों में जिम्मेदारी तथा अनुशासन का समावेश किया जाना होगा।
13.सुविचारित भागीदारी के बिना कोई भी लोकतंत्र स्वस्थ नहीं रह सकता। प्यारे विद्यार्थियों,आप इस देश के सबसे प्रतिभावान युवाओं में से हैं। समाज ने आपमें निवेश किया है तथा बदले में आपको भी समाज को कुछ लौटाना है। आप पर लोगों की उम्मीदें तथा अपेक्षाएं टिकी हैं। पढ़ो,सीखो तथा राष्ट्रीय मुद्दों पर अपना नजरिया बनाओ। इस देश के शासन को अपना जुनून बनाओ। हमारे सुंदर और कभी कभार शोरगुल युक्त सहभागिता को चुनो। शासन के भावी प्रयोक्ताओं के रूप में आपको यह सुनिश्चित करने के लिए सक्रिय तथा सकारात्मक भूमिका निभानी है कि ये संस्थाएं अपना दायित्व जिम्मेदारी के साथ निभाएं।
14.हमारे लोकतंत्र के संदर्भ में सुशासन, हृदय में केवल नागरिकों की बेहतरी के इरादे के साथ राज्य के संस्थानों के सफल कामकाज का प्रतिबिंब है। इन्हीं शब्दों के साथ,मैं अपनी बात समाप्त करता हूं।