शताब्दी स्मृति समिति द्वारा आयोजित इंदिरा गांधी शती व्याख्यान
नई दिल्ली : 19-11-2016
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1. मैं, मुझे श्रीमती इंदिरा गांधी की जन्म शती मनाने के लिए कार्यकलापों के भाग के रूप में शताब्दी स्मृति समिति द्वारा आयोजित किए जा रहे इंदिरा गांधी शताब्दी व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किए जाने पर अत्यंत प्रसन्न और सम्मानित हूं।
2. इंदिरा जी 20वीं शताब्दी की एक प्रमुख विभूति थी। लगभग16 वर्षों तक प्रधानमंत्री के रूप में कार्य करते हुए,इंदिराजी आधुनिक भारत की प्रमुख निर्माता थी। उन्होंने इतिहास के महत्त्वपूर्ण कालखण्ड में हमारे देश की भूमिका और भविष्य को प्रभावित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। गरीबों और पिछड़ों के प्रति उनकी अदम्य चिंता थी और उन्होंने अत्यंत गंभीरता से उनके हित की रक्षा की। वह वैश्विक शांति, एक न्यायसंगत आर्थिक व्यवस्था और नि:शस्त्रीकरण की एक सुधारक थीं। मुझे अनेक वर्षों तक उनके साथ निकटता से काम करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और मुझे यह बताते हुए कोई संकोच नहीं है कि राजनीति और सरकार में वे मेरी सबसे बड़ी परामर्शक थी।
3. श्रीमती गांधी जी के बारे में वर्षों के दौरान बहुत कुछ बोला और लिखा गया है जो कहा गया है उसको दोहराने की बजाए मैं आज यह बताने पर ध्यान केंद्रित करूंगा कि कैसे उनका समूचा जीवन साहस और विश्वास की गाथा थी। मैं उनके नेतृत्व गुण, संघर्ष भावना,दृढ़ता और कठिन परिस्थितियों के समक्ष अपना विश्वास बनाए रखने पर बल दूंगा।
4. 86 वर्ष पहले 26 अक्तूबर, 1930 को इंदिराजी को संबोधित एक पत्र में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने केंद्रीय कारावास,नैनी से लिखा था:
‘‘यदि हमें भारत के सैनिक बनना है और हमें भारत के गौरव का सम्मान करना है और यह गौरव एक पवित्र विश्वास है.... यह तय करना आसान काम नहीं है कि क्या सही है और क्या गलत। जब भी कभी तुम्हे संदेह हो तो एक छोटी सी आजमाइश करने के लिए कहूंगा.... कोई भी गोपनीय काम मत करो या जिसे तुम छुपाना चाहते हो,किसी काम को छुपाने का अर्थ है कि तुम्हे डर है और डर एक बुरी चीज है जो तुममें नहीं होना चाहिए। साहसी बनो बाकी सब ठीक हो जाएगा.... तुम जानती हो कि बापू जी के नेतृत्व में हमारे एक महान स्वतंत्रता आंदोलन में गोपनीयता या छिपाव के लिए कोई जगह नहीं है। हमारे लिए छिपाने के लिए कुछ नहीं है। हमें कोई डर नहीं है कि हमें क्या करना है या क्या कहना है। हम धूप में और रोशनी में काम करते हैं। इसलिए अपने निजी जीवन में धूप में दोस्त बनाओ और रोशनी में काम करो,कोई भी चीज छिपकर मत करो.... और यदि तुम ऐसा करोगी,मेरे बच्चे चाहे कुछ भी हो जाए तुम रोशन,निडर, शांत और दृढ़ बालिका के रूप में बड़ी होगी।
5. 13 वर्ष की छोटी आयु में इंदिरा जी ने इस सलाह को दिल से माना और अपने व्यक्तित्व का एक स्थाई हिस्सा बना लिया। कार्य में साहस,निर्भयता और निर्णय लेने में हिम्मत उनके चरित्र की विशिष्ट पहचान थी। अपने पूरे जीवन में वह जैसा पंडित जी चाहते थे एक रोशन व्यक्तित्व: वीर,निडर, शांत और दृढ़ बनी रहीं।
6. शायद यह जानी-मानी बात नहीं है कि इंदिराजी के नेतृत्व गुण की पहली परीक्षा सांप्रदायिक हिंसा और क्रूरता के तांडव के दौरान हुई जो अपने साथ विभाजन लाया। इंदिरा जी ने भीड़ से एक व्यक्ति को बचाने के लिए अपना जीवन जोखिम में डाल दिया। घटना के बारे में बताते हुए बाद में इंदिराजी ने कहा, ‘‘निडर व्यक्ति से ज्यादा एक उपद्रवी को और कोई डर नहीं होता। पूरी तरह निडर रहने के अलावा ना तो किसी हथियार की जरूरत है ना ही किसी और चीज की जरूरत है। मैंने लगभग 200 हथियार बंद लोगों द्वारा पीछा किए जा रहे एक व्यक्ति को देखा। वह60 या 70के बीच एक बूढ़ा आदमी था जब मैं चलती कार से बाहर कूदी और उस आदमी को अपने पीछे किया तो भीड़ ने कहा:‘तुम्हें पता है तुम क्या कर रही हो,कौन हो तुम?’ और मैंने कहा‘मेरे नाम का कोई महत्व नहीं है,परंतु मैं जानना चाहती हूं कि तुम क्या कर रहे हो। मैं जानती हूं मैं क्या कर रही हूं। मैं इस आदमी को बचा रही हूं। तुम क्या कर रहे हो?’उन्होंने कहा, ‘तुम उसे नहीं बचा सकती। हम इसे मार देंगे और अगर तुम बीच में आई तो हम तुम्हें भी मार देंगे।’मैंने कहा, ‘ठीक है अगर तुम मुझे मारना चाहते हो तो तुम ऐसा कर सकते हो,परंतु मुझे लगता है कि तुममें हिम्मत नहीं है। तुम दो सौ आदमियों में से किसी में भी अपना हाथ उठाने की हिम्मत नहीं है।’और यह सच था उनमें हिम्मत नहीं थी।’’
7. जैसे ही यह घटना फैली बापूजी ने इंदिराजी को बुलाया और दिल्ली के मुस्लिम मोहल्लों में काम करने के लिए कहा। शुरू में इंदिराजी को हिचक हुई क्योंकि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं था और कोई उनके साथ नहीं था। परंतु जैसे ही बापू जी ने कहा, ‘यदि मेरे पास तुम्हारे साथ भेजने के लिए एक भी आदमी होता तो मैं यह काम करने के लिए तुमसे नहीं कहता।’इंदिराजी का साहस उभरकर सामने आ गया। वह न केवल अकेली गईं बल्कि जरूरतमंदों की सहायता के दौरान समुदायों को एकजुट करने का असाधारण कार्य भी किया।
8. सांप्रदायिक हिंसा के बारे में बाद में बताते हुए इंदिराजी ने कहा, ‘हमारे अंदर ऐसा कुछ है,हमारे अंदर कुछ ऐसी कमी है जो थोड़ी सी भी बात पर हिंसा के प्रति हमारे घुटने टेक देती है। यह ताकत या साहस का चिह्न नहीं है परंतु अत्यधिक कमजोरी और कायरता है। इससे ज्यादा कायरतापूर्ण क्या हो सकता है कि लोगों की भीड़ एक व्यक्ति को मारना या नुकसान पहचाना चाहती है?’ इंदिराजी सांप्रदायिक हिंसा फैलाने वालों की कायरता से घृणा करती थीं और वह लगातार उनके खिलाफ लड़ती रहीं। अपने जीवन में वह पंथ,जाति, समुदाय और संप्रदायों के सभी भेदभावों से ऊपर उठ गईं। इसी वजह से हमारे देश के सभी वर्गों और सभी भागों के लोग उनसे प्यार करते थे। मुझे याद है कि कैसे ऑपरेशन ब्लू स्टार शुरू करने का निर्णय लिया गया था, उन्हें सतर्क किया गया था कि इससे उग्रवादी तत्व उनसे घृणा करेंगे और सिख समुदाय का बड़ा हिस्सा नाराज हो जाएगा। मुझे उनके गंभीर परंतु संकल्पपूर्ण शब्द पूरी तरह याद है, ‘मुझे नतीजों के बारे में पता है’। इंदिराजी को पूरी तरह ज्ञात था कि उनके और सरकार के पास कोई और विकल्प नहीं है। उन्हें पूरी तरह पता था कि उनका जीवन खतरे में है। परंतु उन्होंने राष्ट्र के सर्वोत्तम हितों,विशेषकर देश की एकता और अखण्डता कायम करने की आवश्यकता,को ध्यान में रखते हुए आगे बढ़ने का फैसला किया।
मित्रो, देवियो और सज्जनो,
9. पहली बार 1959 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नागपुर सत्र में इंदिराजी को कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व संभालने के लिए कहा गया। उस समय वह केवल42 वर्ष की थीं। अपनी 11 महीनों की अध्यक्षता के दौरान पंडित नेहरू और पार्टी के अन्य सर्वोच्च नेताओं की असहमति के बावजूद स्वतंत्र विचार और कड़े निर्णय लेने की योग्यता का प्रदर्शन करते हुए, उन्होंने जल्द ही अपनी काबिलियत साबित कर दी।
10. पंडितजी के निधन के बाद के चुनावों में प्रधानमंत्री के रूप में शास्त्रीजी को चुना गया। शास्त्री जी ने सूचना और प्रसारण मंत्री के रूप में इंदिराजी को कैबिनेट में शामिल होने का निमंत्रण दिया,इस पद पर उन्होंने लगभग 19 महीने तक एक अच्छे प्रशासक के रूप में काम किया।
11. 1966 में शास्त्रीजी के देहावसान के बाद देश के समक्ष यह प्रश्न आया कि राष्ट्र का नेतृत्व कौन करेगा। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष,श्री के. कामराज ने प्रधान मंत्री पद के लिए इंदिराजी से अनुरोध किया। इंदिराजी प्रस्ताव स्वीकार करने के लिए तैयार थी और उन्होंने आवश्यक होने पर चुनाव की तैयारी कर ली। नेताओं के एक समूह ने इस प्रस्ताव पर सहमति नहीं दी क्योंकि उन्हें इंदिराजी के नेतृत्व की गुणवत्ता और मजबूती पर विश्वास नहीं था। अंतत:,कांग्रेस संसदीय दल के नेतृत्व के लिए एक चुनाव अनिवार्य हो गया। मोरारजी उस समय के वरिष्ठ और प्रतिष्ठित नेता,ने उनके विरुद्ध चुनाव लड़ा। इंदिराजी ने साहसपूर्ण ढंग से चुनौती को स्वीकार किया और उन्हें अपने प्रतिद्वंद्वी के मुकाबले526 में से 355मत मिले और 186 के बहुमत से चुनाव जीत गई।
12. 1967 का आम चुनाव पहली बार था जब कांग्रेस पार्टी सर्वोच्च पद पर नेहरूजी के बिना चुनाव लड़ी। उस दौरान अर्थव्यवस्था की हालत भी भी खराब थी। ये चुनाव1966 में भारतीय रुपये के अवमूल्यन के तुरंत बाद और भीषण खाद्य संकट (हरित क्रांति के परिणाम1969 के बाद ही आने शुरू हुए) के समय आयोजित हुए। देश में व्यापक असंतोष के कारण कांग्रेस ने लोकसभा की78 सीटें खो दीं। परंतु प्रधान मंत्री के रूप में इंदिराजी ने520 सीटों में से 283जीत कर पार्टी का सत्ता में आना सुनिश्चित कर दिया।
13. 1967 का राष्ट्रपति चुनाव नाटकीय था क्योंकि भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में के. सुब्बा राव त्यागपत्र देकर विपक्ष के राष्ट्रपति के पद के उम्मीदवार बन गए। उनकी अध्यक्षता में एक खंडपीठ ने27 फरवरी, 1967 को गोलकनाथ निर्णय दिया था जिसमें यह व्याख्या की गई थी कि संविधान के अंतर्गत,संसद को मौलिक अधिकार में संशोधन करने की शक्ति प्रदान नहीं की गई है। इस निर्णय के दूरगामी परिणाम मिले और यह विवाद का विषय बन गया। आश्चर्यजनक रूप से सुब्बा राव की उम्मीदवारी को स्वतंत्र पार्टी,जनसंघ आदि जैसी दक्षिण पंथी रूढ़िवादी पार्टियों और अन्य का समर्थन प्राप्त हुआ। अंतत: सुब्बा राव डॉ. जाकिर हुसैन से1,07,273 वोटों से हार गए। डॉ. जाकिर हुसैन को सुब्बा राव के3,63,971 के मुकाबले 4,71,244वोट प्राप्त हुए।
14. 1969 में डॉ. जाकिर हुसैन के निधन के कारण राष्ट्रपति चुनाव पहले करने पड़े और भारतीय राजनीति में एक नया मोड़ आया। राष्ट्रपति चुनाव इंदिरा गांधी जिन्हें प्रधानमंत्री पद पर तीन वर्ष हुए थे तथा के. कामराज,एस. के. पाटिल, अतुल्य घोष,एस. निजलिंगप्पा और सभा के नेता के रूप में विख्यात नीलम संजीव रेड्डी के बीच झगड़े की जड़ बन गया।
15. इंदिराजी ने कांग्रेस संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष के पद के लिए बाबू जगजीवन राम के नाम का प्रस्ताव दिया। सभा के नेताओं ने अपनी ओर से उम्मीदवार के रूप में नीलम संजीव रेड्डी का प्रस्ताव किया। कांग्रेस संसदीय बोर्ड के10 में से 6 सदस्यों ने संजीव रेड्डी के पक्ष में मतदान किया और वह राष्ट्रपति चुनाव में पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार घोषित हुए। कांग्रेस संसदीय पार्टी के नेता के रूप में इंदिराजी ने संजीव रेड्डी का नामांकन पत्र जमा करवाया। इसी बीच,उपराष्ट्रपति और पूर्व श्रम नेता,वी.वी. गिरि जिन्हें राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में कांग्रस पार्टी द्वारा नामित किए जाने की उम्मीद थी (सभी पिछले दो उपराष्ट्रपति,डॉ. जाकिर हुसैन और डॉ. राधाकृष्णन को राष्ट्रपति बनाया गया था) अनदेखा किए जाने पर खिन्न हो गए। उन्होंने त्यागपत्र दे दिया और घोषणा की कि वह निर्दलीय के रूप में राष्ट्रपति का चुनाव लड़ेंगे। सभा के साथ अपने बढ़ते मतभेदों के मद्देनज़र,इंदिराजी ने वी.वी. गिरि को समर्थन देने का फैसला किया और निर्वाचक मंडल से विवेकपूर्ण मत देने की अपील की। वी.वी. गिरि नीलम संजीव रेड्डी के313548 मतों की तुलना में 401515 मतों से राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। इस प्रकार इंदिरा ने यह बताया कि वह अपने सभी प्रतिद्वंद्वियों की खीझ के लिए कोई नहीं बल्कि‘गूंगी गुड़िया’हैं।
16. सभा के नेता अपने आर्थिक विचारों के मामले में संकीर्ण थे लेकिन इंदिरा ने तर्क दिया कि जब तक पूरी ताकत से जन समर्थित कार्यक्रम शुरू और कार्यान्वित नहीं किए जाएंगे कांग्रेस सरकार और आम जनता के बीच खाई को नहीं भरा जा सकता। उनमें और उप-प्रधान मंत्री मोराजी देसाई के बीच बैंकों के राष्ट्रीयकरण और अन्य आर्थिक नीतियों को लेकर मतभेद थे। अंतत: मोरारजी देसाई को वित्त पोर्टफोलियो से वंचित कर दिया गया और तब उन्होंने त्याग-पत्र दे दिया। इंदिराजी ने वित्त पोर्टफोलियो अपने हाथ में ले लिया और 19 जुलाई, 1969में 14 बैंकों के राष्ट्रीयकरण की घोषणा के साथ वह आगे बढ़ीं। उसके बाद गुप्त पर्सों को समाप्त करने और कुछ ही लोगों के हाथों में आर्थिक शक्ति को इकट्ठी होने से रोकने के लिए अन्य उपायों की घोषणा की गई।
17. अंतत: राष्ट्रपति चुनावों में कांग्रेस के अधिकृत उम्मीदवार संजीव रेड्डी की पराजय और आर्थिक मुद्दों पर बढ़ते हुए मतभेदों का पार्टी पर असर पड़ा।1969 में बॉम्बे में आयोजित अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के दो समानांतर सत्रों से पार्टी की संगठनात्मक शाखा और संसदीय शाखा के बीच वैमनस्य शीघ्र ही समझौते से दूर हो गया।12 नवम्बर, 1969को आधिकारिक विभाजन कांग्रेस अध्यक्ष,एस. निजलिंगप्पा ने इंदिरा जी और उनके सरकार में उनके कुछ वरिष्ठ सहयोगियों को पार्टी से निकालकर बढ़ा दिया। इंदिराजी डटी रहीं और जनता के समर्थन के आधार पर उन्होंने निजलिंगप्पा की कार्रवाई को अस्वीकार कर दिया। उन्होंने कहा, ‘यह जनता के लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित नेता के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई करने के लिए कुछ मुट्ठी भर लोगों की नासमझी है।’उनके एक समर्थक ने निजलिंगप्पा को एक व्यंग्यात्मक पत्र लिखते हुए उन्हें अपने बैग पैक करके मैसूर लौटने के लिए कहा।
18. मेरे विचार से इतिहासकारों को इस काल को अधिक बारीकी से अध्ययन करने की जरूरत है। राष्ट्रपति का पद एक संवैधानिक अकार्यकारी पद है। मुझे प्राय: हैरानी होती है कि संजीव रेड्डी54 वर्ष की आयु में राष्ट्रपति क्यों बनना चाहते थे। इस संबंध में दो प्रश्न विचारणीय हैं। क्यों न्यायपालिका से,भारत के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश अभूतपूर्व और अप्रत्याशित ढंग से1967 के राष्ट्रपति चुनाव में कूद गए?इसी प्रकार अपेक्षाकृत युवा, इंदिरा जी से केवल चार वर्ष छोटे संजीव रेड्डी ने जो दो बार मुख्य मंत्री,कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष और केंद्र सरकार में मंत्री रह चुके थे,बिना किसी कार्यकारी शक्ति के राष्ट्रपति पद को चुनने का निर्णय किया?क्या संजीव रेड्डी का नामांकन प्रधानमंत्री की शक्तियों को कम करने का प्रयास था?क्या इंदिरा जी के प्रतिद्वंद्वी राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच टकराव पैदा करने के लिए संवैधानिक राष्ट्रपति पद प्रयोग करना चाहते थे?शायद इंदिरा जी ने संजीव रेड्डी की उम्मीदवारी का विरोध किया क्योंकि वह इस खेल को समझ रही थीं। उन्होंने गौर किया कि प्रधानमंत्री की शक्ति को कम करने और राष्ट्रपति की भूमिका बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है। इंदिरा जी ने यह गहराई से महसूस किया कि भारत जैसे संसदीय लोकतंत्र में प्रधानमंत्री की भूमिका सर्वोच्च होनी चाहिए। शायद इसी विचार के अनुरूप उन्होंने1976 में संविधान के 42वें संशोधन के भाग के रूप में अनुच्छेद74 में संशोधन पेश किया। इस संशोधन में यह स्पष्ट किया गया कि राष्ट्रपति अपने कामकाज के प्रयोग में मंत्रीपरिषद की सलाह के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य है। इंदिरा जी विवेकानुसार कार्य के लिए राष्ट्रपति के लिए कोई गुंजायश नहीं छोड़ना चाहती थीं।
19. पाकिस्तान विशेषकर इसके पूर्वी भाग में1971 के दौरान अशांतकारी घटनाओं ने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी जिसमें इंदिरा जी ने जनता और राष्ट्र के हित में अपने नेतृत्व कौशल तथा कठोर निर्णय लेने की योग्यता का प्रदर्शन किया।1970 के चुनाव में पाकिस्तान नेशनल एसेंबली में शेख मुजिबुर रहमान की अवामी लीग ने जुल्फीकार अली भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की81 सीटों की तुलना में 300में से 160 जीती। अवामी लीग ने पूर्वी पाकिस्तान की विधानसभा की300 में से 288सीट भी जीतीं। इन परिणामों के आधार पर शेख मुजिबुर रहमान को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के रूप में सरकार गठित करने के लिए आमंत्रित किया जाना चाहिए था। उनकी पार्टी को पूर्वी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के लिए किसी को चुनने देना चाहिए था। सत्ता हस्तांतरण की बजाय राष्ट्रपति याह्या खान ने शेख मुजिबुर रहमान के साथ विचार-विमर्श के लिए03 मार्च, 1971को ढाका की यात्रा की। बिना किसी समझौते के अनगिनत बैठकें हुईं। अंतत: राष्ट्रपति याह्या खान25 मार्च को पश्चिमी पाकिस्तान लौट गए और उसी रात बांग्लादेश की नागरिक आबादी पर क्रूर कार्रवाई की गई। पूरे बांग्लादेश में हमले,हत्या, आगजनी,लूट और बलात्कार हुए। शेख मुजिबुर रहमान को उनके घर से गिरफ्तार कर लिया गया और पश्चिमी पाकिस्तान की जेल में लाया गया। हमारे सीमावर्ती राज्यों के जरिए लगभग एक करोड़ शरणार्थियों की विशाल आबादी भारत में दाखिल हुई। पूर्वी पाकिस्तान के प्रमुख राजनीतिक नेता भारत आ गए और पश्चिम बंगाल की सीमा के निकट मुजिबनगर में निर्वासित सरकार गठित की। भारी संख्या में शरणार्थियों का भारत में प्रवेश इंदिरा जी के लिए अब तक की सबसे बड़ी विदेश नीति चुनौती थी। उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान की घटनाक्रम की जानकारी अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को देने के लिए तुरंत पूरे विश्व की यात्रा की तथा समस्या के राजनीतिक समाधान का प्रयास किया। यह स्थिति शीघ्र ही1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में बदल गई।16 दिसंबर, 1971को पाकिस्तान की युद्ध में निर्णायक हार हुई और एक नए राष्ट्र बांग्लादेश ने जन्म लिया।
20. इंदिरा जी पूर्वी पाकिस्तान के मुक्ति संघर्ष के प्रति अपने समर्थन में अडिग और दृढ़संकल्प थीं। उन्होंने इस सच्चाई को देखते हुए बहुत बड़ा जोखिम लिया कि पाकिस्तान को अमरीका और चीन समर्थन दे रहे हैं। टकराव की कार्रवाई के रूप में, अमरीका ने बंगाल की खाड़ी में अपना सातवां बेड़ा भेजा। इंदिरा जी ना तो अमरीका के दबाव में आईं और न ही चीन की रुख के आगे झुकीं। उन्होंने दिखाया कि वह एक इस्पाती शक्ति वाली नेता हैं जो किसी भी चुनौती में भारत का नेतृत्व करने के लिए पूरी तरह तैयार हैं। इंदिरा जी ने पाकिस्तान को मुक्त करने के लिए सतर्क योजना,पर्याप्त तैयारी और एकाग्रता के साथ साहसिक और शीघ्र निर्णय को जोड़ दिया। इस प्रकार उन्होंने विश्व और भारत के इतिहास में एक अनूठा अध्याय लिखा।
मित्रो, देवियो और सज्जनो,
21. 1971 के आम चुनावों में इंदिरा जी के नेतृत्व में कांग्रेस ने लोकसभा में दो तिहाई से अधिक बहुमत के साथ भारी जीत हासिल की। पार्टी ने न केवल उत्तरी भारत के हिंदी क्षेत्र बल्कि कर्नाटक,गुजरात और आंध्र प्रदेश जैसे उन क्षेत्रों में शानदार जीत अर्जित की जहां एस. निजलिंगप्पा,मोरारजी देसाई और नीलम संजीव रेड्डी जैसी कांग्रेस (ओ) की हस्तियों ने व्यक्तिगत रूप से चुनावी संघर्ष का नेतृत्व किया।
22. अत्यधिक जन विरोधों और जे पी आंदोलन के कारण25 जून, 1975 से21 मार्च, 1977 तक आपातकाल लगाया गया। आपातकाल पर काफी साहित्य उपलब्ध है और मैं इस विषय पर वाद-विवाद में शामिल नहीं होना चाहता हूं। मेरे विचार पहले ही‘‘माई मेमोयर्स- द ड्रेमेटिक डिकेड- द इंदिरा गांधी इयर्स’’के खंड I में दर्ज हैं।
23. आपातकाल के बाद मार्च, 1977 के चुनावों में कांग्रेस और श्रीमती गांधी की बुरी तरह हार हुई। कांग्रेस ने जनता पार्टी की295 सीटों की तुलना में केवल 154 सीटें जीतीं। श्रीमती गांधी स्वयं रायबरेली की सीट55,202 मतों से हार गईं। 30 वर्ष में पहली बार कांग्रेस को विपक्ष में बैठना पड़ा।
24. इंदिरा गांधी ने चुनावी हार की पूरी जिम्मेदारी अपने ऊपर ली और कहा, ‘‘मैंने11 वर्ष तक पार्टी का नेतृत्व किया है। इसलिए असफलता की जिम्मेदारी मेरी है। जनता के सामूहिक निर्णय का सम्मान करना चाहिए। मैं खुल कर और विनम्र भाव के साथ इस निर्णय को स्वीकार करती हूं। चुनाव लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा हैं, जिनके प्रति हम पूर्णत: वचनबद्ध हैं। मैंने हमेशा कहा है और मेरा मानना है कि चुनाव में जीत या हार हमारे देश की मजबूती और हमारी जनता का बेहतर जीवन सुनिश्चित करने की अपेक्षा कम महत्त्वपूर्ण है।’’
25. चुनावों के बाद का माहौल इंदिराजी के लिए बहुत प्रतिकूल था। जनता पार्टी और कांग्रेसियों के एक वर्ग ने उनके विरुद्ध लगातार लांछन लगाए। मीडिया भी पूरी तरह उनके खिलाफ थी। देशभर में इंदिरा विरोधी रैलियां आयोजित की गई जिनमें प्रदर्शनकारी ‘उन्हें फांसी दो!’चिल्लाते थे।
26. शाह आयोग का गठन किया गया और तत्कालीन गृह मंत्री ने घोषणा की कि इंदिरा गांधी का अपराध न्यूरेमबर्ग की तरह मुकदमे का दोषी है। उनके विरुद्ध ओछे मामले शुरू किए गए और मणिपुर में एक मामले में तो उन्हें अपने अण्डे और मुर्गी चुराने का सह आरोपी बनाया गया।
27. मुझे 1978 की घटना याद है जब असम में चुनाव प्रचार के दौरान इंदिरा जी को एक कप चाय की बुरी तरह तलब हो रही थी। उन्होंने मुझसे इसकी व्यवस्था करने के लिए कहा। हम राजमार्ग पर थे और किनारे बने ढाबे धूल भरे और गंदे थे। नजदीक ही एक चाय बागान था जिसका मालिक कांग्रेस का समर्थक हुआ करता था। मैंने उन्हें सुझाव दिया कि हम चाय बागान में उसके बंगले पर जाकर एक कप चाय के लिए कह सकते हैं। परंतु टी एस्टेट के मालिक को इतना डर था कि कहीं उसे कोई इंदिरा जी के साथ न देख ले इसलिए उसने दरवाजा खोलने या पानी का एक गिलास पिलाने से भी मना कर दिया। इंदिरा जी इन कष्टों और कठिनाइयों में दृढ़ बनी रहीं। वह हमसे कहा करती थीं कि‘हम संघर्ष करेंगे।’
28. इंदिरा जी को अपनी निष्क्रियता को छोड़ने में कुछ महीने ही लगे। उन्होंने देश का व्यापक भ्रमण करना शुरू कर दिया और विनोबा भावे और जे पी जैसी हस्तियों से मिलीं। इंदिरा जी चौबीसों घंटे काम करतीं,उनका दिन सुबह 6 बजे शुरू होता और अगली सुबह3 बजे समाप्त होता था। अक्सर उनकी सभाओं में प्रदर्शन,उपद्रव और बाधाओं द्वारा रुकावटें पैदा की जाती थीं। मुझे याद है कि एक बार सिलचर,असम में मुझे एक पत्थर मारा गया। यद्यपि इंदिरा जी उल्लसित रहती थीं और उनका अदम्य उत्साह अपने आसपास के सभी लोगों को प्रेरित करता था और हिम्मत बंधाता था। उनके विचार पूछने वाले मीडिया और दूसरे लोगों से वह कहा करती थीं :‘‘इंतजार करो और देखो,माहौल बदल सकता है।’’
29. इंदिरा जी की सबसे बड़ी खूबी आम जनता,विशेषकर जमीनी कांग्रेसी कार्यकर्ताओं से जुड़ाव था। लोग उनमें अदम्य संघर्ष और लौह इच्छा की उम्मीद देखा करते थे। बिहार के नालंदा जिले में ग्यारह दलितों के नरसंहार के बाद उनकी बेलची यात्रा के बारे में सभी जानते हैं। बेलची तक सड़क से पहुंचना दुर्गम था परंतु वह रुकी नहीं। उन्होंने कहा, ‘‘हम वहां पैदल चलेंगे चाहे हमें पूरी रात हो जाए।’’रास्ता अंत में कीचड़ भरा हो गया। इंदिरा जी की जीप कीचड़ में फंस गई और उसे निकालने के लिए ट्रेक्टर लाया गया। वह जीप से कूदीं और साड़ी को टखने तक उठाकर कीचड़ से निकलने लगी। हर क्षण मुश्किल होता जा रहा था,परंतु उन्होंने हार न मानी। एक हाथी लाया गया और उन्होंने तुरंत उस पर सवार होकर बेलची की यात्रा को साढ़े तीन घंटे में पूरा किया,किसी भी राष्ट्रीय नेता ने कभी ऐसी यात्रा नहीं की थी। वह बेलची पहुंचने के लिए दृढ़ संकल्प थीं और उन्होंने ऐसा पूरी तरह अपनी दृढ़ता और दलितों के कल्याण के प्रति वचनबद्धता के लिए किया। फलत: इंदिरा जी की सराहना पिछड़ों और शोषितों की रक्षक के रूप में की गई थी।
30. 1978 में कांग्रेस पार्टी दोबारा बंट गई और इंदिराजी को पार्टी का अधिकृत नाम,इसका झण्डा, सभी बैंक खाते,पार्टी मुख्यालय और चुनावी चिह्न रेड्डी कांग्रेस को देने पड़े। कांग्रेस पार्टी के पास संसाधनों की इतनी कमी हो गई कि हमें धन इकट्ठा करने के लिए इंदिरा जी के फोटो बेचने पड़े। हम प्रत्येक फोटो के लिए2 रुपए और हस्ताक्षरित फोटो के लिए5 रुपए लिया करते थे।
31. कांग्रेस के 1978 के बंटवारे को सही प्रकार से समझना होगा। इंदिराजी का वाई.बी. चव्हाण और ब्रह्मानंद रेड्डी जैसे कांग्रेसी नेताओं से बड़ा मतभेद नहीं था। वह उनका सहयोग किया करती थीं। परंतु कांग्रेस कार्यकारिणी समिति इंदिरा की आलोचना का मंच बन गई। कांग्रेस पार्टी के तत्कालीन नेताओं ने महसूस किया कि जनता ने आपातकाल के लिए पार्टी को दंडित किया है। यदि पार्टी ने सत्तासीन जनता पार्टी का सहयोग नहीं किया तो जनता उसे क्षमा नहीं करेगी। लेकिन इंदिरा जी का मानना था कि चुनावी हार से विपक्ष की भूमिका नहीं बदलती है। विपक्ष का कार्य विरोध,प्रकटन और संभव हो तो पदच्युत करना है।
32. अपनी संघर्ष भावना का प्रदर्शन करते हुए,इंदिरा जी ने चुनौती और टकराव का रवैया अपनाया। उन्होंने तर्क दिया कि कांग्रेस चुनाव जीती या हारी,यह बेमानी है। जनता को निरंतर और अबाध सेवा देना आवश्यक है।
33. 1977 के चुनावों के एक वर्ष के बाद,इंदिराजी पर हमले जारी रहे और वे संसद तक पहुंच गए। 16 नवम्बर, 1978 को दो जनता सदस्यों मधु लिमये और कंवर लाल गुप्ता द्वारा उनके और कुछ अन्य लोगों के विरुद्ध लोक सभा के पटल पर विशेषाधिकार उल्लंघन का प्रस्ताव पेश किया गया। इंदिराजी पर मारुति उद्योग लिमिटेड के संबंध में सूचना प्राप्त करने वाले कुछ अधिकारियों के कार्य में बाधा,रुकावट, उत्पीड़न और झूठा मामला शुरू करने का आरोप लगाया गया। सदन द्वारा18 नवम्बर को विशेषाधिकार समिति को मामला भेजते हुए एक प्रस्ताव स्वीकार किया गया। जनता पार्टी का समिति में बहुमत था। समिति ने उन्हें दण्ड की सिफारिश की।19 दिसंबर को सदन ने यह निर्णय लेते हुए प्रस्ताव पारित किया कि उन्हें सदन से निष्कासित कर दिया जाए और सदन के अवसान तक बंदी बना लिया जाए।
34. प्रस्ताव स्वीकार करने के बाद,सदन को 19 दिसंबर को सांय5.05 बजे स्थगित कर दिया गया। औपचारिकताएं पूरी होने तक इंदिराजी लगभग तीन घंटे तक सदन में प्रतीक्षा करती रहीं। राजीवजी और सोनियाजी सहित हममें से बहुत से उनके साथ थे। हम दुखी थे परंतु इंदिरा जी अंग्रेज कवि की एक पंक्ति का उद्धरण दे रही थी, ‘‘अलविदा कहो,आंसुओं से नहीं मुस्कान से।’’
35. इंदिराजी आत्मविश्वासी और दूरदर्शी नेता,जनता और चुनावी राजनीति जिसके संगम ने उन्हें एक विशिष्ट राजनीतिज्ञ बना दिया था,की उन्हें गहरी समझ थी। राजनीतिक निर्वासन की छोटी सी अवधि ने उनकी सच्ची ताकत को उजागर किया। एक आरामदायक जीवन की आदी व्यक्ति के रूप में, उन्हें आजमगढ़ उपचुनाव अभियान और जब आंध्र प्रदेश में चुनावी प्रचार के दौरान सर्किट हाऊस में उनका आरक्षण रद्द कर दिया गया,खुले आकाश के नीचे सोने में उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई। उनके प्रेरणादायक नेतृत्व में,कांग्रेस कार्यकर्ताओं को भविष्य के बारे में दोबारा साहस,भरोसा और विश्वास हासिल करने में लगभग एक वर्ष लगा। इंदिरा गांधी के नेतृत्व में एक मजबूत और दृढ़ कांग्रेस के विरोध के सामने जनता सरकार जल्द ही ढेर हो गई। मीडिया रिपोर्ट और सम्पादकीय लगातार उन्हें खारिज करते रहे और भविष्यवाणी करते रहे कि वह कभी वापस नहीं आ सकती, परंतु उन्हें पूरी तरह गलत साबित करते हुए वह दबे-कुचले,उत्पीड़ित, किसानों और कामगार वर्गों की रक्षक के रूप में उभरीं।
मित्रो,
36. भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को आपातकाल के बाद निर्मम जनता द्वारा मतदान द्वारा बाहर कर दिया गया। परंतु भारत की जनता1980 में,तीन वर्ष की छोटी सी अवधि में उन्हें फिर सत्ता में लेकर आई। गरीबों और पिछड़ों के प्रति इंदिराजी की निष्ठा को देखने के बाद भारत की जनता उनके प्रति प्रशंसा और प्रेम से भर गई। मुश्किलों का सहजता से सामना करने की उनकी क्षमता और अडिगता के कारण उन्होंने उन्हें पूरे दिल से अपनाया। परिश्रम, जनता से जुड़े मुद्दों को लगातार उठाने तथा समग्र रूप से जनता के विकास और प्रगति की संकल्पना की प्रभावी अभिव्यक्ति द्वारा उनकी सत्ता में वापसी हुई।
37. 1980 की इंदिरा सत्ता में वापस आने वाली,सभी कटाक्षों और अपमान पर विजय प्राप्त करने वाली योद्धा थीं। परिवार का नाम या नेहरू की विरासत नहीं बल्कि लोगों की समस्याओं पर जोर देने की दृढ़ता और उन्हें अपने लिए एकजुट करने की उनकी योग्यता उन्हें सत्ता में लाई थी।
38. कांग्रेस में उनका विरोध करने वाले बहुत से लोग1980 के चुनाव में पराजित हुए। वे एक के बाद एक उनके साथ आ गए। ब्रह्मानंद रेड्डी जिनके नाम से रेड्डी कांग्रेस बनाई गई,स्वयं अपनी पार्टी छोड़कर कांग्रेस (आई) में शामिल हो गए।
मित्रो, देवियो और सज्जनो,
39. 13 दिसंबर, 1978 को सदन से निष्कासित होने के बाद संसद को इंदिराजी के संबोधन से कुछ पंक्तियों के द्वारा मैं इस व्याख्यान को समाप्त करता हूं। उन्होंने कहा था,
‘‘मैं एक मामूली व्यक्ति हूं परंतु मैं कुछ मूल्यों और उद्देश्यों का समर्थन करती हूं। मेरा कोई भी अपमान पलट जाएगा। मुझे दिया गया कोई भी दण्ड मुझे ताकतवर बनाएगा।
मेरी आवाज चुप नहीं होगी क्योंकि यह अकेली आवाज नहीं है। यह मेरे जैसी अबला और एक मामूली व्यक्ति के लिए नहीं बोली जा रही है। .....बल्कि समाज के गहरे और महत्त्वपूर्ण परिवर्तन के लिए है जो अकेले ही सच्चे लोकतंत्र और पूर्ण स्वतंत्रता की आधार हो सकती है जो अकेली न्याय सुनिश्चित कर सकती है और एक बेहतर व्यक्ति तैयार करने में मदद कर सकती है।
इस सदन का माहौल ‘एलिस इन वंडरलैंड’के दृश्य की याद दिलाता रहा है जिसमें सारे कार्ड हवा में उठकर चिल्लाते हैं, ‘उसका सिर कलम कर दो।’मेरा सिर तुम्हारा है। इन अनेक महीनों में मेरा बक्सा पैक हो गया है,हमें बस सर्दियों की चीजें डालनी है।’’
40. इतिहास में दर्ज है कि इंदिराजी भारत की दूसरी सबसे लम्बे समय तक रहने वाली प्रधानमंत्री थी जिन्होंने1976 से 1977 तक11 वर्ष और दो महीने तथा पुन: 1980 से 1984 तक चार वर्ष आठ महीने तक लगातार पद पर रहीं। इंदिराजी के समय में भारत कुशल वैज्ञानिक और तकनीकी जनशक्ति का तीसरा विशालतम भण्डार,पांचवीं सैन्य शक्ति, परमाणु क्लब का छठा सदस्य,अंतरिक्ष में सातवां तथा दसवीं औद्योगिक शक्ति बना। परंतु उनके द्वारा छोड़ी गई सच्ची विरासत भारत और इसकी जनता के प्रति उनकी भावना,हमारे प्रमुख मूल्यों के प्रति उनकी गहरी निष्ठा तथा भारत को निर्धनता और अभाव से ऊपर उठाने और अंतरराष्ट्रीय जमात में ऊंचे स्थान पर आसीन होते देखने की आकांक्षा है।
41. उनके निधन के 34 वर्ष के बाद इस वर्ष अगस्त में इंडिया टूडे ग्रुप द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में दर्शाया गया कि भारत के अधिकांश लोग अभी भी उनके पिता पंडित जवाहरलाल नेहरू को पीछे छोड़ते हुए उन्हें भारत की सर्वोत्तम प्रधानमंत्री मानते हैं। वह सदैव भारत की जनता के हृदय में रहेंगी और सभी भावी प्रधानमंत्रियों की तुलना में आदर्श बनी रहेंगी।
42. इंदिराजी के जीवन और विरासत से हमें जो शिक्षा लेनी चाहिए वह है,प्रत्येक पराजय को सफलता की सीढ़ी बनाया जा सकता है। असंभव को भी संभव बनाया जा सकता है। जीत या हार नहीं बल्कि हमारे राष्ट्र की सेवा के लक्ष्य प्राप्त करने के लिए प्रयास महत्त्वपूर्ण हैं। हमें अपनी जनता के कल्याण के लिए निरंतर प्रयत्न करने होंगे।
43. मैं इंदिराजी के अंतिम भाषण के एक कथन से अपनी बात समाप्त करता हूं :‘‘मैं परवाह नहीं करती कि मैं जीवित रहूंगी या नहीं। मैंने एक लम्बा जीवन जी लिया है और जिस बात पर मुझे गर्व है,वह है कि मैंने अपना समूचा जीवन सेवा में बिताया है। मुझे किसी पर नहीं बल्कि इस पर गर्व है। जब तक मेरे तन में प्राण हैं मैं सेवा करती रहूंगी और जब मेरे प्राण निकल जाएंगे तो मैं कह सकती हूं कि मुझमें खून की प्रत्येक बूंद भारत को जीवन देगी और उसे मजबूत बनाएगी।’’
44. उनकी मृत्यु के बाद उनके कागजों में एक नोट मिला जिसमें उनकी हस्तलिपि में लिखा था, ‘‘यदि मैं हिंसक मौत मरूं,जैसा कि कुछ आशंका है और कुछ षड्यंत्र रच रहे हैं,मैं जानती हूं कि हिंसा हत्यारे के विचार और कार्य में होगी,मेरी मृत्यु में नहीं है क्योंकि कोई भी घृणा इतनी अधिक नहीं है जो जनता और देश के प्रति मेरे प्रेम को आवृत्त कर सके;कोई भी ताकत इतनी मजबूत नहीं है कि वह इस देश को आगे बढ़ाने के मेरे उद्देश्य और मेरे प्रयास से मुझे विचलित कर दे...
मैं नहीं समझ सकती कि कोई भारतीय हो और उसे हमारी मिश्रित धरोहर की समृद्धि और असीम विविधता,किसी संकट या दायित्व में समान, अपनी आस्था पर दृढ़, गरीबी और कठिनाई में स्वत: हर्षित होने की विराट जन भावना पर गर्व न हो।’’
45. शायद ही ऐसा स्वत: कोई हो जिसने इंदिराजी की तरह भारत को उतने उत्साह से प्रेम किया हो और इसकी शान के लिए कार्य किया हो। उनकी स्मृति के प्रति हमारी सर्वोत्तम श्रद्धांजलि स्वयं को भारत के कल्याण और इसकी गौरवपूर्ण जनता की सेवा में पूर्णत: और समग्रत: समर्पित करना हो सकता है।
> धन्यवाद।
> जय हिन्द।